गुरुआज्ञा पालक शिष्य उपमन्यु


गुरुआज्ञा पालक शिष्य उपमन्यु

महर्षि आयोदधौम्य अपनी विद्या, तपस्या और विचित्र उदारता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों के प्रति अत्यंत कठोर थे, किंतु भीतर से शिष्यों को असीम स्नेह करते थे। वे अपने शिष्यों को अत्यंत सुयोग्य बनाना चाहते थे, इसलिए कभी-कभी उनके प्रति कठोर हो जाया करते थे। महर्षि के शिष्यों में से एक था- उपमन्यु। गुरुदेव ने उसे वन में गाये चराने का कार्य दे रखा था।एक दिन गुरुदेव ने पूछा- ‘‘बेटा उपमन्यु, तुम आजकल भोजन क्या करते हो?’’ उपमन्यु बोला- ‘‘भगवन्, मैं भिक्षा मांगकर अपना काम चलाता हूं।’’ महर्षि ने कहा- ‘‘वत्स, ब्रrाचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा में जो कुछ मिले, वह गुरु को देना चाहिए। उसमें से यदि गुरु कुछ दें, तो उसे ग्रहण करना चाहिए।’’ उपमन्यु ने महर्षि की बात मानकर भिक्षा का अन्न उन्हें शुरू किया। किंतु वे उसमें से कुछ भी उपमन्यु को न देते। तब उसने अपनी भूख शांत करने के लिए दुबारा भिक्षा मांगनी आरंभ कर दी। गुरुदेव ने इस पर भी आपत्ति ली- ‘‘इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा मांगने वालों को भी संकोच होगा।’’थोड़े दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तो उपमन्यु ने बताया कि मैं गायों का दूध पी लेता हूं। तब महर्षि ने तर्क दिया कि गायें तो मेरी हंै और मुझसे बिना पूछे वह दूध नहीं पीना चाहिए। तब उपमन्यु ने बछड़ों के मुख से गिरने वाले फेन से अपनी भूख मिटाना शुरू किया, किंतु महर्षि ने वह भी बंद करवा दिया। उपमन्यु उपवास करने लगा। एक दिन भूख के असह्य होने पर उसने आक के पत्ते खा लिए, जिसके विष से वह अंधा होकर जल रहित कुंए में गिर गया। महर्षि ने उसे जब ऐसी अवस्था में पाया, तो ऋग्वेद के मंत्रों से अश्विनी कुमारों की स्तुति करने को कहा। उपमन्यु द्वारा श्रद्धापूर्वक स्मरण करने पर वे प्रकट हुए और उसकी नेत्र ज्योति लौटाते हुए उसे एक पूआ खाने को दिया, जिसे गुरु की आज्ञा के बिना खाना उपमन्यु ने स्वीकार नहीं किया। इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उपमन्यु को समस्त विद्याएं बिना पढ़े आ जाने का आशीष दिया। वस्तुत: गुरु की आज्ञाओं का यथावत् पालन करने वाले शिष्य को ज्ञान का वह दुर्लभ मोति प्राप्त होता है, जिसकी चमक कभी मंद नहीं होती और जिसके बल पर वह सभी प्रकार की संपन्नता को आसानी से प्राप्त कर लेता है।

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