प्रहलाद ने पापी पिता की मुक्ति के लिए प्रार्थना की


प्रहलाद ने पापी पिता की मुक्ति के लिए प्रार्थना की

हिरण्यकशिपु जब प्रहलाद को मारने के लिए खड़ा हुआ और क्रोधावेश में उसने सामने के खंभे पर घूंसा मारा, तब उसी खंभे को फाड़कर भगवान नृसिंह प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपने नाखूनों से उसका सीना चीर दिया। 

भगवान नृसिंह हिरण्यकशिपु की आंतों की माला गले में डाले, विकट गर्जना करते हुए उसके सिंहासन पर बैठ गए। उनका क्रोध शांत ही नहीं हो रहा था। शंकरजी और ब्रह्माजी के साथ सभी देवताओं ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया, किंतु कोई परिणाम नहीं निकला। 

ब्रह्माजी ने भगवती लक्ष्मी को भेजा, किंतु वे भी उनका विकराल रूप देखकर लौट आईं और बोलीं- अपने आराध्य का इतना भयंकर रूप मैंने कभी नहीं देखा। मैं उनके पास नहीं जा सकती। अत: ब्रह्माजी ने प्रहलाद से कहा- बेटा, तुम्हीं जाकर भगवान को शांत करो। 

प्रहलाद सहज भाव से प्रभु के सामने गए और दंडवत प्रणाम किया। तब भगवान नृसिंह ने उन्हें स्नेहवश गोद में बैठाकर कहा- बेटा, मुझे क्षमा कर। मेरे आने में बहुत देर हुई, इससे तुझे अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ा। तेरी जो इच्छा हो, वह वरदान मांग। तब प्रहलाद बोले- जो सेवक कुछ पाने की आशा में स्वामी की सेवा करे, वह सेवक ही नहीं है। आप तो मुझे यह वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना ही न हो। भगवान ने ‘तथास्तु’ कहकर भी कहा- प्रहलाद, कुछ तो मांगो। प्रभु के बार-बार कहने पर प्रहलाद ने अपने पापी पिता की मुक्ति के लिए प्रार्थना की। जिसे भगवान ने स्वीकार कर लिया।

वस्तुत: सच्चे भगवद् भक्त में जो भी इच्छा होती है, वह परहितार्थ ही होती है और वह कभी कष्ट देने वाले की भी दुर्गति नहीं चाहता।

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