भक्त और भगवान


भक्त और भगवान


तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।

नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’

नारद ने मन में सोचा, ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’ श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं। नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’

नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी। अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे रौरव नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं। उन्होंने भी अपनी वीणा उठाई और राधा की स्तुति गाने लगे।

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