भीष्म ने द्रौपदी को शुद्धता का महत्व समझाया


भीष्म ने द्रौपदी को शुद्धता का महत्व समझाया


महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। रानी द्रौपदी व अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर भीष्म से धर्मोपदेश सुनने आए थे। पितामह उन लोगों को वर्ण, आश्रम, राजा-प्रजा आदि के विभिन्न धर्मो का उपदेश दे रहे थे। तभी द्रौपदी को हंसी आ गई।

पितामह ने पूछा- बेटी, तुम हंसी क्यों? द्रौपदी ने सकुचाकर कहा- मुझसे भूल हुई। मुझे क्षमा करें पितामह! पितामह बोले- बेटी, कोई भी शीलवती कुलवधू गुरुजनों के सम्मुख अकारण नहीं हंसती। तेरी हंसी अकारण नहीं हो सकती। संकोच छोड़कर तू अपने हंसने का कारण बता। हाथ जोड़कर द्रौपदी बोली- पितामह! यह बहुत ही अभद्रता की बात है किंतु आप आज्ञा देते हैं तो कहनी पड़ेगी।

आप धर्मोपदेश दे रहे थे तो मेरे मन में यह बात आई कि आज तो आप धर्म की एेसी उत्तम व्याख्या कर रहे हैं किंतु कौरवों की सभा में जब दु:शासन मुझे निर्वस्त्र कर रहा था, तब आपका यह धर्म ज्ञान कहां चला गया था? शायद धर्म का यह ज्ञान आपने बाद में सीखा।

यह सोचकर मुझे हंसी आई। पितामह ने द्रौपदी को शांति से समझाया- बेटी, मुझे धर्म-ज्ञान तो उस समय भी था किंतु दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गई थी। इसी कारण उस द्यूत सभा में धर्म का ठीक निर्णय करने में मैं असमर्थ हो गया था, किंतु अब अजरुन के बाण लगने से दूषित अन्न से बने रक्त के शरीर से बाहर निकल जाने के कारण मेरी बुद्धि शुद्ध हो गइर् है।

अत: इस समय मैं धर्म का तत्व ठीक-ठीक समझकर उसका सही विवेचन कर रहा हूं। सार यह है कि हम जैसा अन्न खाते हैं, हमारी सोच और आचरण भी तदनुकूल हो जाता है इसलिए खान-पान में शुद्धता अनिवार्य है। 

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