क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से


क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से



गंधर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि की महिमा सुनकर अर्जुन ने कहा गंर्धवराज महर्षि वशिष्ठ कौन थे? कृपया उनका चरित्र सुनाइये। गंधर्वराज कहने लगे हे अर्जुन महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र है। उनकी पत्नी का नाम अरूंधती है। उन्होने अपनी तपस्या के बल से देवताओं पर विजय और अपनी इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसलिए उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हे क्षमा कर दिया। यहां तक कि विश्वामित्र ने उनके पूरे सौ पुत्रों का नाश कर दिया। वशिष्ठ में बदला लेने की पूरी शक्ति थी। लेकिन फिर भी उन्होने कोई प्रतिकार नहीं किया। अर्जुन ने पूछा गंधर्व राज विशिष्ठ और विश्वामित्र तो आश्रमवासी थे, उनकी दुश्मनी का क्या कारण हैं? गंधर्व ने कहा: बहुत प्राचीन और विश्वविश्रुति है। मैं तुम्हे सुनाता हूं। 

एक बार राजा कुशिक के पुत्र विश्वामित्र अपने मन्त्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। विशिष्ठ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। अपनी कामधेनु नन्दिनी से उनकी खुब सेवा की। इस सेवा से विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होने वसिष्ठ से कहा कि आप मुझ से एक अर्बुद गौएं या मेरा राज्य ले लिजिए। अपनी कामधेनु नन्दिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ बोले मैंने यह दुधार गाय देवता, अतिथि पितर और यक्षो के लिए रख छोड़ी है। विश्वामित्र बोले आप ब्राम्हण हैं और मैं क्षत्रीय हूं। अगर आप मुझे नन्दिनी नहीं देगें तो मैं उसे बलपूर्वक प्राप्त कर ले जाऊंगा। वशिष्ठ जी ने बोला आप तो बलवान क्षत्रीय है जो चाहे तुरंत कर सकते हैं। 

जब विश्वामित्र बलपूर्वक नन्दिनी को ले जाने लगे तब वह विलाप करती हुई कहने लगी हे भगवन्! ये सब मुझे डंडों से पीट रहे हैं मैं अनाथों की तरह मार खा रही हूं। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? विशिष्ठ उसका करूण कुंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुए न धैर्य से विचलित। वे बोले क्षत्रीयों का बल हैं तेज और ब्राम्हणों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ।

तुझमें शक्ति हो तो रह जा देख, तेरे बच्चे ये लोग मजबुत रस्सी से बाधकर लिए जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आंखें लाल हो गई और उसका रोद्र स्वरूप को देखकर विश्वामित्र के सारे सैनिक भाग गए।


मुनि वसिष्ठ की नंदिनी से विश्वामित्र के संघर्ष के बाद अब गंधर्वराज अर्जुन से कहते हैं हे!अर्जुन राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है। 

शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।

वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।

महाभारत के इस दृष्टांत से हमें सीख मिलती है कि क्षमा करने वाला हमेशा श्रेष्ठ होता है इसलिए क्षमा करना और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की सीख महर्षि वसिष्ठ से मिलती है।

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