सती अनसूया
सती अनसूया
भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में अनसूया का स्थान बहुत ऊँचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था। ब्रह्माजी के मानस पुत्र तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से उन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था।
भगवान् को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है तो वे नाना प्रकार की लीलाएँ करते हैं। श्रीलक्ष्मीजी, श्रीसरस्वतीजी को अपने पतिव्रत का बड़ा अभिमान था। तीनों देवियों के अहंकार को नष्ट करने के लिये भगवान ने नारद जी के मन में प्रेरणा की। फलतः वे श्रीलक्ष्मीजी के पास पहुँचे। नारदजी को देखकर लक्ष्मीजी का मुख-कमल खिल उठा। लक्ष्मीजी ने कहा—‘आइये, नारदजी ! आप तो बहुत दिनों के बाद आये कहिये, क्या हाल हैं ?’
नारद जी बोले—‘माताजी ! क्या बताऊँ, कुछ बताते नहीं बनता। अबकी बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया। वहाँ मैं महर्षि अत्रि के आश्रमपर पहुँचा। माताजी ! मैं तो महर्षि की पत्नी अनसूयाजी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया। तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है।’ लक्ष्मीजी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने पूछा—नारद ! क्या वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है ?’ नारदजी ने कहा—‘माताजी ! आप ही नहीं, तीनों लोकों में कोई भी स्त्री सती अनसूया की तुलना में किसी भी गिनती में नहीं है।’ इसी प्रकार देवर्षि नारद ने सती और सरस्वती के पास जाकर उनके मन में भी सती अनसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी। अन्त में तीनों देवियों ने त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिये बाध्य कर दिया।
ब्रह्म, विष्णु और महेश महर्षि अत्रि के आश्रमपर पहुँचे। तीनों देव मुनिवेष में थे। उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रमपर नहीं थे। अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत-सत्कार करना चाहा, किन्तु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया।
सती अनसूया ने उनसे पूछा —‘मुनियों ! मुझसे कौन-सा ऐसा अपराध हो गया, जो आपलोग मेरे द्वारा की हुई पूजाग्रहण नहीं कर रहे हैं ?’ मुनियों ने कहा—‘देवि ! यदि आप बिना वस्त्रके हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगे। यह सुनकर सती अनसूया सोच में पड़ गयीं। उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया वे बोलीं—मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूँगी। यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैंने कभी भी कामभाव से किसी पर-पुरुषका चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छः-छः माह के बच्चे बन जायँ।’
पतिव्रता का इतना कहना था कि त्रिदेव छः-छः माह के बच्चे बन गये। माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में खेलने के लिये डाल दिया इस प्रकार त्रिदेव माता अनसूया वात्सल्य प्रेम के बन्दी बन गये। इधर जब तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं तो वे चिन्तित हो गयीं। आखिर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिये चित्रकूट गयीं। संयोग से वहीं नारद जी से उनकी मुलाकात हो गयी। त्रिदेवियों ने उनसे अपने पतियों का पता पूछा। नारदने कहा कि वे लोग तो आश्रममें बालक बनकर खेल रहे हैं। त्रिदेवियों ने अनुसूयाजी से आश्रम में प्रवेश की आज्ञा माँगी। अनसूया जी ने उनसे उनका परिचय पूछा। त्रिदेवियों ने कहा—‘माताजी ! हम तो आपकी बहुएँ हैं। आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें।’ अनसूयाजी का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने बच्चे पर जल छिड़ककर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया और अन्ततः उन त्रिदेवों की पूजा-स्तुति की। त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अपने-अपने अंशों से अनुसूया के यहाँ पुत्ररूप में प्रकट होने का वरदान दिया।