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रावण का स्वभाव

रावण के पुत्र ने कहा नीति सुनिए पहले दूत भेजिए, और सीताजी को देकर श्रीरामजी से प्रीति कर लीजिए। यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएं, तब तो झगड़ा न बढ़ाइए। नहीं तो युद्धभूमि में उनसे मार-काट कीजिए। रावण उसकी बातें सुनकर गुस्से से लाल हो गया बोला तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुझे अभी से मन में संदेह क्यों हो रहा है। पिता की यह कठोर बात सुनकर वह अपने महल को चला गया  शाम का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चल दिया। लंका की चोटी पर एक बहुत विचित्र महल था। वहां नाच-गाना व अखाड़ा जमता था। रावण उस महल मैं जाकर बैठा। किन्नर उसके गुणों का गान करने लगे।  सुंदर अप्सराएं नृत्य कर रही थी। वह इंद्र की तरह ही भोग विलास कर रहा था। इधर रामजी बहुत भीड़ के साथ बड़े पर्वत पर उतरे। उस रमणीय शिखर पर लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों में सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर मृगछाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु रामजी विराजमान हैं। वानरराज सुग्रीव ने अपना सिर रामजी की गोद में रखा हुआ है।  उनकी बांयी और धनुष तथा बांयी और तरकस है। विभीषण बोले लंका की चोटी पर एक महल है। र

गजानन हैं श्रीकृष्ण के अवतार!

हिन्दू धर्मशास्त्रों में श्रीगणेश को भगवान श्रीकृष्ण का ही अवतार बताया गया है। भगवान गणेश के चरित्र से जुड़े इस पहलू को लेकर कई धर्म में आस्थावान लोगों के मन में जिज्ञासा होती है कि आखिर कब और कैस भगवान श्रीकृष्ण महादेव के पुत्र गणेश के रूप में अवतरित हुए? यह रोचक पौराणिक कथा इस जिज्ञासा को शांत करती है- ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा है कि पुत्र पाने की कामना से व्याकुल मां पार्वती ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने बूढ़े ब्राह्मण के वेश में आकर माता पार्वती को बताया कि वह श्रीगणेश के रूप में उनके पुत्र बनकर आएंगे।  इसके बाद बहुत ही सुन्दर बालक माँ पार्वतीजी के सामने प्रकट हुआ। उस बालक की सुंदरता से मोहित होकर सभी देवता, ऋषि-मुनि और ब्रह्मा-विष्णु भी वहां आए। शिव भक्त शनिदेव से भी यह सुनकर रहा नहीं गया। वह भी सुंदर शिव पुत्र को देखने की चाहत से वहां आए। किंतु शनिदेव को उनकी पत्नी का शाप था कि वह जिस पर नजर डालेंगे उसका सिर कट जाएगा। इसलिए शनिदेव ने वहां आकर भी बालक पर नजर नहीं डाली। तब माता पार्वती शनि देव के ऐसे व्यवहार से अचंभित हुई और उन्होंने शनिदेव से अ

शंकरजी द्वारा अर्जुन को पाशुपत अस्त्र

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हे उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। उसके बाद अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करों और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे।  अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं। यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंचे वहां जाकर देखा तो दो नाग थे। दोनों नाग धनुष और बाण में बदल गए। इसके बाद वे धनुष और बाण लेकर कृष्ण-अर्जुन दोनों शंक

परम भक्त हनुमान

रामचंद्रजी के राज्याभिषेक के समय सीता माता ने हनुमानजी को मणियों की माला उपहार में दी ,  तो हनुमानजी माला तोडकर एक - एक मणि को दांतों से तोडने लगे और बडे गौर से उन्हें देखने लगे। इस पर लक्ष्मणजी ने क्रोध में पूछा कि क्या कर रहे हो ?  हनुमानजी ने सहज भाव से कहा कि मेरे राम सर्वत्र विराजमान हैं ,  कण - कण में रहते हैं। मैं देख रहा था कि इन मणियों में वे विराजमान हैं या नहीं ?  इस पर लक्ष्मणजी ने कह दिया ,  क्या तुम्हारे हृदय में भी राम हैं ?  उत्तर में हनुमानजी ने अपना सीना चीरकर दिखा दिया कि सचमुच सीता व राम वहां विराजमान हैं।  ।

शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश

शिव का  गृहस्थ- जीवन   उपदेश एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं। भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है। भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और श

अश्वत्थामा

गुरु द्रौण और उनके पुत्र अश्वत्थामा  द्रौण को अपने पुत्र  अश्वत्थामा  से बहुत प्यार था। शिक्षा में भी अन्य छात्रों से भेदभाव करते थे। जब उन्हें सभी कौरव और पांडव राजकुमारों को चक्रव्यूह की रचना और उसे तोडऩे के तरीके सिखाने थे, उन्होंने शर्त रख दी कि जो राजकुमार नदी से घड़ा भरकर सबसे पहले पहुंचेगा, उसे ही चक्रव्यूह की रचना सिखाई जाएगी। सभी राजकुमारों को बड़े घड़े दिए जाते लेकिन अश्वत्थामा को छोटा घड़ा देते ताकि वो जल्दी से भरकर पहुंच सके। सिर्फ अर्जुन ही ये बात समझ पाया और अर्जुन भी जल्दी ही घड़ा भरकर पहुंच जाते।   जब ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की बारी आई तो भी द्रौणाचार्य के पास दो ही लोग पहुंचे। अर्जुन और अश्वत्थामा। अश्वत्थामा ने पूरे मन से इसकी विधि नहीं सीखी। ब्रह्मास्त्र चलाना तो सीख लिया लेकिन लौटाने की विधि नहीं सीखी। उसने सोचा गुरु तो मेरे पिता ही हैं। कभी भी सीख सकता हूं। द्रौणाचार्य ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। जब महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन और अश्वत्थामा ने एक-दूसरे पर ब्रह्मास्त्र चलाया। वेद व्यास के कहने पर अर्जुन ने तो अपन

शिव और सती का विवाह

शिव और सती का  विवाह  दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। फिर भी दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो सर्व शक्ति-संपन्न हो एवं सर्व विजयिनी हो। जिसके कारण दक्ष एक ऐसी हि पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, 'मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। तुम किस कारण वश तप कर रहे हों? दक्ष नें तप करने का कारण बताय तो मां बोली मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी। फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थीं। सतीने बाल्य अवस्था में ही कई ऐसे अलौकिक आश्चर्य चलित करने वाले कार्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मयता होती रहती थी। जब सती विवाह योग्य होगई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता होने लगी। उन्होंने ब्रह्मा जी से इस विषय में परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति औ

शनि की लंगड़ाहट

शनि की लंगड़ाहट  पौराणिक कथानुसार लंकापति रावण ने अपनी अपार शक्ति से न केवल देवताओं का राज्य छीन लिया बल्कि उसने सभी ग्रहों को भी कैद कर लिया था। जब मेघनाद का जन्म होने वाला था तब रावण ने सभी ग्रहों को उनकी उच्च राशि में स्थापित होने का आदेश दिया।  उसके भय से ग्रस्त ग्रहों को भविष्य में घटने वाली घटनाओं को लेकर बड़ी चिंता सताने लगी। पर मेघनाद के जन्म के ठीक पहले शनि देव ने अपनी राशि बदल दी। इस कारण मेघनाद अपराजेय व दीर्घायुवान नहीं हो सका।  रावण ने क्रोध में आकर शनि के पैर पर गदा से प्रहार किया। इस कारण शनि की चाल में लंगड़ाहट आ गई।

शनि का जन्म

पुराणों और शास्त्रानुसार कश्यप मुनि के वंशज भगवान सूर्यनारायण की पत्नी स्वर्णा (छाया) की कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सौराष्ट्र के शिंगणापुर में शनि का जन्म हुआ। माता ने शंकर जी की कठोर तपस्या की। तेज गर्मी व धूप के कारण माता के गर्भ में स्थित शनि का वर्ण काला हो गया। पर इस तप ने बालक शनि को अद्भुत व अपार शक्ति से युक्त कर दिया।  एक बार जब भगवान सूर्य पत्नी छाया से मिलने गए तब शनि ने उनके तेज के कारण अपने नेत्र बंद कर लिए। सूर्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसे देखा व पाया कि उनका पुत्र तो काला है जो उनका नहीं हो सकता।  सूर्य ने छाया से अपना यह संदेह व्यक्त भी कर दिया। इस कारण शनि के मन में  माता के प्रति भक्ति, पिता से विरक्त  हो गए। शनि के जन्म के बाद पिता ने कभी उनके साथ पुत्रवत प्रेम प्रदर्शित नहीं किया    अपने पिता के प्रति शत्रुवत भाव पैदा । इस पर शनि ने भगवान शिव की कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया।  जब भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो शनि ने कहा कि पिता सूर्य ने मेरी माता का अनादर कर उसे प्रताड़त किया है। मेरी माता हमेशा अपमानित व पराजित होत

सती अनसूया

सती अनसूया भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में अनसूया का स्थान बहुत ऊँचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था। ब्रह्माजी के मानस पुत्र तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से उन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था। भगवान् को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है तो वे नाना प्रकार की लीलाएँ करते हैं। श्रीलक्ष्मीजी, श्रीसरस्वतीजी को अपने पतिव्रत का बड़ा अभिमान था। तीनों देवियों के अहंकार को नष्ट करने के लिये भगवान ने नारद जी के मन में प्रेरणा की। फलतः वे श्रीलक्ष्मीजी के पास पहुँचे। नारदजी को देखकर लक्ष्मीजी का मुख-कमल खिल उठा। लक्ष्मीजी ने कहा—‘आइये, नारदजी ! आप तो बहुत दिनों के बाद आये कहिये, क्या हाल हैं ?’  नारद जी बोले—‘माताजी ! क्या बताऊँ, कुछ बताते नहीं बनता। अबकी बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया। वहाँ मैं महर्षि अत्रि के आश्रमपर पहुँचा। माताजी ! मैं तो महर्षि की पत्नी अनसूयाजी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया। तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है।’ लक्ष्मीजी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने

राम जी और शंकर जी का युद्ध

राम जी और शंकर जी का युद्ध बात उन दिनों कि है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था. श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी. यज्ञ का अश्व प्रदेश प्रदेश जा रहा था. इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा. शत्रुघ्न के अलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भरत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था. कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोडा देवपुर पहुंचा जहाँ राजा वीरमणि का राज्य था. राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे. उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे. राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे. राजा वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था. महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था. जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्

शक्ति का अनावश्यक प्रयोग

 शक्ति का अनावश्यक प्रयोग  महाभारत की शुरुआत में कर्ण के जन्म की कथा आती है। कर्ण की मां कुंती राजकुमारी थीं। एक दिन उनके राजमहल में महर्षि दुर्वासा आए। दुर्वासा अपने क्रोध और शापों के कारण बहुत चर्चित थे। हर राजा उन्हें प्रसन्न करने के लिए हर संभव प्रयास करता था।  कुंतीराज ने भी दुर्वासा को अपना अतिथि बनाया। उनकी सेवा में कोई कमी ना रहे इसलिए उन्होंने उनके आतिथ्य की सारी जिम्मेदारी बेटी कुंती को सौंप दी। कुंती ने भी पूरे समर्पण के साथ महर्षि दुर्वासा की सेवा की।  कई दिनों तक सेवा का पूरा सिलसिला चलता रहा। दुर्वासा ने कुंती की कई कठिन परीक्षाएं भी लीं जिससे कि कुंती उन्हें अप्रसन्न कर सके लेकिन कुंती ने धैर्य नहीं खोया। वो महर्षि की हर परीक्षा में सफल रही। दुर्वासा उससे बहुत प्रसन्न हुए। जाते-जाते उसे एक ऐसा मंत्र दे गए, जिसके उच्चारण से जिस देवता को बुलाया जाए, वो उपस्थित हो जाता है।  कुंती को एकाएक इस पर भरोसा नहीं हुआ। उसने इस मंत्र के सत्य को जानने के लिए सूर्य का आवाहन कर लिया। तत्काल सूर्य देवता प्रकट हो गए। कुंती से वरदान मांगने को कहा तो कुंती ने कहा मुझे क

दोबारा हुआ द्रोपदी का भरी सभा में अपमान

दोबारा हुआ द्रोपदी का भरी सभा में अपमान पांडवों को मत्स्यदेश की राजधानी में रहते हुए दस महीने बीत गए। यज्ञसेन कुमारी द्रोपदी भी वहां दासी की तरह रहने लगी। जब एक वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया मत्स्यनरेश का साला कीचक अपनी बहन से मिलने आया। तब उसकी नजर महल में काम करती हुई द्रोपदी पर पड़ी। द्रोपदी की अद्भुत सुंदरता देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने अपनी बहन से कहकर राजकुमारी द्रोपदी के पास आकर बोला- कल्याणी! तुम कौन हो? कहां से आई हो? सुंदरी अगर तुम चाहो तो मैं अपनी पहली स्त्रियों को त्याग दूंगा। उन्हें तुम्हारी दासी बनाकर रखूंगा। बस तुम मेरी रानी बन जाओ। द्रोपदी ने कहा मुझसे ऐसा कहना उचित नहीं है। संसार के सभी प्राणी अपनी स्त्री से प्रेम करते हैं, तुम धर्म पर विचार कर ऐसा ही करो। मेरे पति गंधर्व हैं।उन्हें अगर ये बात पता चली तो वो आपको जीवित नहीं रहने देंगे। द्रोपदी के इस तरह ठुकराने पर कीचक कामसंप्तत होकर अपनी बहन सुदेष्णा के पास जाकर बोला- बहिन जिस उपाय से भी सौरंध्री मुझे स्वीकार करे, सो करो नहीं तो मैं उसके मोह में अपने प्राण दे दूंगा। तब उसकी बहिन ने उसे समझाते हुए

अर्जुन के दस नाम

अर्जुन के दस नाम  एक बार की बात है जब कौरवों ने नपुसंक वेषधारी पुरुष को रथ में चढ़कर शमीवृक्ष की तरफ जाते हुए देखा तो वे अर्जुन के आने की आशंका से मन ही मन बहुत डरे हुए थे। तब द्रोणाचार्य ने पितामह भीष्म से कहा गंगापुत्र यह जो स्त्रीवेष में दिखाई दे रहा है, वह अर्जुन सा जान पड़ता है। इधर अर्जुन रथ को शमी के वृक्ष के पास ले गए और उत्तर से बोले राजकुमार मेरी आज्ञा मानकर तुम जल्दी ही वृक्ष पर से धनुष उतारो।  ये तुम्हारे धनुष के बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। उत्तर को वहां पांच धनुष दिखाई दिए। उत्तर पांडवों के उन धनुषों को लेकर नीचे उतारा और अर्जुन के आगे रख दिए। जब कपड़े में लपेटे हुए उन धनुषों को खोला तो सब ओर से दिव्य कांति निकली। तब अर्जुन ने कहा राजकुमार ये तो अर्जुन का गाण्डीव धनुष है। राजकुमार उत्तर ने नपुसंक का वेष धरे हुए अर्जुन से कहा अगर ये धनुष पांडवों के हैं तो पांडव कहां हैं? तब अर्जुन ने कहा मै अर्जुन हूं। उत्तर ने पूछा कि मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? अगर तुम मुझे उन नामों का व उन नामों के कारण बता दो तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास हो सकता है। उत्तर बोला

ऐसे मिली रावण को सोने की लंका

ऐसे मिली रावण को सोने की लंका एक दिन कुबेर महान समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे। रावण आदि ने जब उनका वह वैभव देखा तो रावण के मन में भी कुबेर की तरह समृद्ध बनने की चाह पैदा हुई। तब रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा ये दोनों तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्व होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्रि में आहूति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्मजी बहुत संतुष्ट हुए उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका। सबको पृथक-पृथक वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा पुत्रों मैं तुम सब प्रसन्न हूं। वर मांगों और तप से निवृत हो जाओ। एक अमरत्व छोड़कर जो जिसकी इच्छा हो मांग लो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इ'छा से जिन सिरों की आहूति दी है वे सब तुम्हारे शरीर में जुड़ जाएंगे। तुम इ'छानुसार रूप धारण कर सकोगे। रावण ने कहा हम युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होंगे-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर और भूतों से मेरी कभी पराजय न हो। तुमने जिन लोगों का नाम लिया। इनमें

करवा चौथ का व्रत

परम्परागत कथा (रानी वीरवती की कहानी): बहुत समय पहले वीरवती नाम की एक सुन्दर लड़की थी। वो अपने सात भाईयों की इकलौती बहन थी। उसकी शादी एक राजा से हो गई। शादी के बाद पहले करवा चौथ के मौके पर वो अपने मायके आ गई। उसने भी करवा चौथ का व्रत रखा लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। वह बेताबी से चांद के उगने का इन्तजार करने लगी। उसके सातों भाई उसकी ये हालत देखकर परेशान हो गये। वे अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार करते थे। उन्होंने वीरवती का व्रत समाप्त करने की योजना बनाई और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी। वीरवती ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर खाना खा लिया। रानी ने जैसे ही खाना खाया वैसे ही समाचार मिला कि उसके पति की तबियत बहुत खराब हो गई है। रानी तुरंत अपने राजा के पास भागी। रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिले। पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृत्यु हो गई है क्योंकि उसने नकली चांद देखकर अपना व्रत तोड़ दिया था। रानी ने तुरंत क्षमा मांगी। पार्वती देवी ने कहा, ''तुम्ह

इसलिए देवी को कहते हैं दुर्गा

इसलिए देवी को कहते हैं दुर्गा पुरातन काल में दुर्गम नामक दैत्य हुआ। उसने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर सभी वेदों को अपने वश में कर लिया जिससे देवताओं का बल क्षीण हो गया। तब दुर्गम ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं को देवी भगवती का स्मरण हुआ। देवताओं ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ तथा चण्ड-मुण्ड का वध करने वाली शक्ति का आह्वान किया।  देवताओं के आह्वान पर देवी प्रकट हुईं। उन्होंने देवताओं से उन्हें बुलाने का कारण पूछा। सभी देवताओं ने एक स्वर में बताया कि दुर्गम नामक दैत्य ने सभी वेद तथा स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया है तथा हमें अनेक यातनाएं दी हैं। आप उसका वध कर दीजिए। देवताओं की बात सुनकर देवी ने उन्हें दुर्गम का वध करने का आश्वासन दिया। यह बात जब दैत्यों का राज दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण कर दिया। तब माता भगवती ने देवताओं की रक्षा की तथा दुर्गम की सेना का संहार कर दिया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया। तब माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उ

गणपति के श्री अवतार

श्रीगणेश के जन्म की कथा  श्रीगणेश के जन्म की कथा भी निराली है। वराहपुराण के अनुसार भगवान शिव पंचतत्वों से बड़ी तल्लीनता से गणेश का निर्माण कर रहे थे। इस कारण गणेश अत्यंत रूपवान व विशिष्ट बन रहे थे। आकर्षण का केंद्र बन जाने के भय से सारे देवताओं में खलबली मच गई। इस भय को भांप शिवजी ने बालक गणेश का पेट बड़ा कर दिया और सिर को गज का रूप दे दिया। दूसरी कथा शिवपुराण से है। इसके मुताबिक देवी पार्वती ने अपने उबटन से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाल दिए। उन्होंने इस प्राणी को द्वारपाल बना कर बैठा दिया और किसी को भी अंदर न आने देने का आदेश देते हुए स्नान करने चली गईं। संयोग से इसी दौरान भगवान शिव वहां आए। उन्होंने अंदर जाना चाहा, लेकिन बालक गणेश ने रोक दिया। नाराज शिवजी ने बालक गणेश को समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी। क्रोधित शिवजी ने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया। पार्वती को जब पता चला कि शिव ने गणेश का सिर काट दिया है, तो वे कुपित हुईं। पार्वती की नाराजगी दूर करने के लिए शिवजी ने गणेश के धड़ पर हाथी का मस्तक लगा कर जीवनदान दे दिया। तभी से शिवजी ने उन्हें तमाम सामर्थ्य

अर्जुन को अहंकार

अर्जुन को अहंकार कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा। जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती। कृष्ण अर्जुन को अपना शिष्य ही नहीं बल्कि मित्र भी मानते थे। जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उनके मित्र अर्जुन के मन में अपनी शक्तियों और क्षमताओं को लेकर

हनुमान अवतार और लंकादहन

हनुमान अवतार और लंकादहन सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक कथा जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई। जानते हैं वह रोचक कथा  श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।  दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया

द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है- एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी।  अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थाम

समय पर सावधान

समय पर सावधान  जब पांडव वापस आए तो शकुनि ने कहा हमारे वृद्ध महाराज ने आपकी धनराशि आपके पास ही छोड़ दी है। इससे हमें प्रसन्नता हुई। अब हम एक दांव और लगाना चाहते हैं। अगर हम जूए में हार जाएं तो मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और तेहरवे वर्ष में किसी वन में अज्ञात रूप से रहेंगे। यदि उस समय भी कोई पहचान ले तो बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और यदि आप लोग हार गए तो आपको भी यही करना होगा। शकुनि की बात सुनकर सभी सभासद् खिन्न हो गए।   वे कहने लगे अंधे धृतराष्ट्र तुम जूए के कारण आने वाले भय को देख रहे हो या नहीं लेकिन इनके मित्र तो धित्कारने योग्य हैं क्योंकि वे इन्हें समय पर सावधान नहीं कर रहे हैं। सभा में बैठे लोगों की यह बात युधिष्ठिर सुन रहे थे। वे ये भी समझ रहे थे कि इस जूए के दुष्परिणाम क्या होगा। फिर भी उन्होंने यह सोचकर की पांडवों का विनाशकाल करीब है, जूआ खेलना स्वीकार कर लिया। जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया।

शाप भी वरदान

शाप  भी  वरदान बात पांडवों के वनवास की है। जुए में हारने के बाद पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास गुजारना था। वनवास के दौरान अर्जुन ने दानवों से युद्ध में देवताओं की मदद की। इंद्र उन्हें पांच साल के लिए स्वर्ग ले गए। वहां अर्जुन ने सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हासिल की। गंधर्वों से नृत्य-संगीत की शिक्षा ली। अर्जुन का प्रभाव और रूप देखकर स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित हो गई। स्वर्ग के स्वच्छंद रिश्तों और परंपरा का लोभ दिखाकर उर्वशी ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की। लेकिन उर्वशी अर्जुन के पिता इंद्र की सहचरी भी थी, सो अप्सरा होने के बावजूद भी अर्जुन उर्वशी को माता ही मानते थे। अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। खुद का नैतिक पतन नहीं होने दिया लेकिन उर्वशी इससे क्रोधित हो गई।उर्वशी ने अर्जुन से कहा तुम स्वर्ग के नियमों से परिचित नहीं हो। तुम मेरे प्रस्ताव पर नपुंसकों की तरह ही बात कर रहे हो, सो अब से तुम नपुंसक हो जाओ। उर्वशी शाप देकर चली गई। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो अर्जुन के धर्म पालन से वे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उर्वशी से

सदैव विनम्र रहे

सदैव विनम्र रहे महाभारत का प्रसंग है। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भीष्म पितामह शैय्या पर लेटे जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटि के ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभव से संपन्न हैं। इसलिए वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह। आप विदा की इस बेला में हमें जीवन के लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो हमेशा हमारा मार्गदर्शन करें। तब भीष्म ने बड़ा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया। नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जल के प्रवाह के साथ बड़े-बड़े वृक्षों को भी बहाकर ले आती है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया। तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बड़े-बड़े वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं। तुम पलभर में उन्हें कहां से कहां ले आती हो? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधों को बहाकर नहीं ला पाती। नदी का उत्तर था जब-जब मेरे जल का बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे रास्ता दे देती हैं।