शारदीय नवरात्र व्रत कथा
नवरात्र प्रसंग में श्री रामचरित मानस का बड़ा ही दिव्य वर्णन है। इस संदर्भ में जनमेजय एवं वेदव्यास का कथोपकथन श्रवण योग्य एवं अनुकरणीय है। उक्त कथोपकथन में जिज्ञासावश जनमेजय ने महात्मा वेदव्यास से पूछा कि भगवान राम ने नवरात्र व्रत क्यों किया था? उन्हें वनवास क्यों दिया गया? सीता जी का हरण हो जाने पर उन्हें प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या किया?
व्यास जी ने कहा-''सीता हरण के समय की बात है। भगवान श्री राम सीता विरह से अत्यंत व्याकुल थे। उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से कहा-'सौमित्रे! जानकी का कुछ भी पता न चला। उसके बिना मेरी मृत्यु बिलकुल निश्चित है। जानकी के बिना अयोध्या में मैं पैर ही न रख सकूंगा। राज्य हाथ से चला गया। बनवासी जीवन व्यतीत करना पड़ा। पिताजी सुरधाम सिधारे। स्त्री हरी गई। पता नहीं, दैव आगे क्या करेगा। मनुके उत्तम वंश में हमारा जन्म हुआ। राजकुमार होने की सुविधा हमें निश्चित सुलभ थी। फिर भी वन में हम असीम दुख भोग रहे हैं। सौमित्रे! तुम भी राजसी भोग का परित्याग करके दुर्दैव की प्रेरणा से मेरे साथ निकल पड़े। लो, अब यह कठिन कष्ट भोगो। लक्ष्मण! जनक सुता सीता बचपन के स्वभाववश हमारे साथ चल पड़ी। दुरात्मा दैव ने उस सुंदरी को भी ऐसे गुरुतर दुख देने वाली दशा में ला पटका। रावण के घर में वह सुंदरी सीता कैसे दुखदायी समय व्यतीत करेगी? उस साध्वी के सभी आचार बड़े पवित्र हैं। मुझ पर वह अपार प्रेम रखती है। लक्ष्मण! सीता रावण के वश में कभी भी नहीं हो सकती। भला जनक के घर उत्पन्न हुई वह सुंदरी किसी दुराचारिणी स्त्री की भांति कैसे रह सकती है। भरतानुज! यदि रावण का घोर नियंत्रण हुआ तो जानकी अपने प्राणों को त्याग देगी; किंतु उसके अधीन नहीं होगी - यह बिलकुल निश्चित बात है। वीर लक्ष्मण! कदाचित् जानकी का जीवन समाप्त हो गया तो मेरे भी प्राण शरीर से बाहर निकल जाएंगे - यह धु्रव सत्य है।' इस प्रकार कमललोचन भगवान राम विलाप कर रहे थे। तब धर्मात्मा लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए सत्यतापूर्वक कहा- 'महाबाहो! संप्रति इस दैन्यभाव का परित्याग करके धैर्य रखिए। मैं उस नीच राक्षस रावण को मारकर माता जानकी को ले आऊंगा। जो सुखमय और दुखमय दोनों स्थितियों में धैर्य धारण कर के एक समान रहते हैं, वे ही बुद्धिमान हैं। कष्ट और वैभव प्राप्त होने पर उसमें रचे-पचे रहना, यह मंदबुद्धि मानवों का काम है। संयोग और वियोग तो होते ही रहते हैं। इसमें शोक क्यों करना चाहिए। जैसे प्रतिकूल समय आने पर राज्य से वंचित होकर वनवास हुआ है, माता सीता हरी गई हैं, वैसे ही अनुकूल समय आने पर संयोग भी हो जाएगा।
भगवन् ! इसमें कुछ भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। अतः अब आप शोक का परित्याग कीजिए। बहुत- से वानर हैं। माता जानकी को खोजने के लिए वे चारों दिशाओं में जाएंगे। उनके प्रयास से माता सीता अवश्य आ जायेंगी, क्योंकि रास्ते के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर मैं वहां जाऊंगा और पूरी शक्ति लगाकर उस नीच रावण को मारने के पश्चात् जानकी को ले आऊंगा। अथवा भैया! सेना और शत्रुघ्नसहित भरत जी को बुलाकर हम तीनों एक साथ हो शत्रु रावण को मार डालेंगे। अतः आप शोक न करें। राघव! प्राचीन समय की बात है। महाराज रघु एक ही रथ पर बैठे और उन्होंने संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली। उन्हीं के कुलदीपक आप हैं, अतः आपका शोक करना किसी प्रकार शोभा नहीं देता। मैं अकेले ही अखिल देवताओं और दानवों को जीतने की शक्ति रखता हूं। फिर मेरे सहायक भी हैं, तब कुलाधम रावण को मारने में क्या संदेह है? मैं जनकजी को भी सहायकरूप में बुला लूंगा। रघुनंदन ! मेरे इस प्रयास से देवताओं का कंटक दुराचारी वह रावण अवश्य ही प्राणों से हाथ धो बैठेगा। राघव! सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख चक्के की भांति निरंतर आते-जाते रहते हैं। सदा कोई एक स्थिति नहीं रह सकती। जिसका अत्यंत दुर्बल मन सुख और दुःख की परिस्थिति में तदनुकूल हो जाता है, वह शोक के अथाह समुद्र में डूबा रहता है। उसे कभी भी सुख नहीं मिल सकता। आप तो इनसे परे हैं।
'रघुनंदन ! बहुत पहले की बात है। इंद्र को भी दुख भोगना पड़ा था। संपूर्ण देवताओं ने मिलकर उनके स्थान पर नहुष की नियुक्ति कर दी थी। वे अपने पद से वंचित होकर डरे हुए कमल के कोष में बैठे रहे। बहुत वर्षों तक उनका अज्ञातवास चलता रहा। पर समय बदलते ही इंद्र को फिर अपना स्थान प्राप्त हो गया। मुनि के शाप से नहुष की आकृति अजगर के समान हो गई और उसे धरातल पर गिर जाना पड़ा। जब उस नरेश के मन में इंद्राणी को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी और वह ब्राह्मणों का अपमान करने लगा, तब अगस्त्य जी कुपित हो गए । इसके परिणामस्वरूप नहुष को सर्पयोनि मिली। अतएव राघव ! दुख की घड़ी सामने आने पर शोक करना उचित नहीं है। विज्ञ पुरुष को चाहिए, इस स्थिति में मन को उद्यमशील बनाकर सावधान रहे। महाभाग ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। जगत्प्रभो ! आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, फिर साधारण मनुष्य की भांति मन में क्यों इतना गुरुतर शोक कर रहे हैं?' व्यासजी ने कहा-लक्ष्मण के उपर्युक्त वचन से भगवान राम का विवेक विकसित हो उठा। अब वे शोक से रहित होकर निश्चिंत हो गए। इस प्रकार भगवान राम और लक्ष्मण परस्पर विचार करके मौन बैठे थे।
इतने में ही महाभाग नारद ऋषि आकाश से उतर आए। उस समय उनकी स्वर ग्राम से विभूषित विशाल वीणा बज रही थी। वे रथंतर साम को उच्च स्वर से गा रहे थे। मुनिजी भगवान् राम के पास पहुंच गए। उन्हें देखकर अमित तेजस्वी श्रीराम उठ खड़े हुए। उन्होंने मुनि को श्रेष्ठ पवित्र आसन दिया। पाद्य और अर्घ्य की व्यवस्था की। भलीभांति पूजा करने के उपरांत हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर मुनि की आज्ञा से उनके पास ही भगवान बैठ गए। उस समय छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके पास थे। उन्हें मानसिक कष्ट तो था ही। मुनिवर नारद ने प्रीतिपूर्वक उनसे कुशल पूछी। साथ ही कहा- 'राघव! तुम साधारण जनों की भांति क्यों इतने दुखी हो? दुरात्मा रावण ने सीता को हर लिया है- यह बात तो मुझे ज्ञात है। मैं देवलोक गया था। वहीं मुझे यह समाचार मिला। अपने मस्तक पर मंडराती हुई मृत्यु को न जानने से ही मोहवश उसकी इस कुकार्य में प्रवृत्ति हुई है। रावण का निधन ही तुम्हारे अवतार का प्रयोजन है। इसीलिए सीता का हरण हुआ है। 'जानकी पूर्वजन्म में मुनि की पुत्री थी। तप करना उसका स्वाभाविक गुण था। वह साध्वी वन में तपस्या कर रही थी। उसे रावण ने देख लिया। राघव ! उस दुष्ट ने मुनिकन्या से प्रार्थना की- 'तुम मेरी भार्या बन जाओ।' मुनिकन्या द्वारा घोर अपमानित होने पर दुरात्मा रावण ने उस तापसी का जूड़ा बलपूर्वक पकड़ लिया। अब तो तपस्विनी की क्रोधाग्नि भड़क उठी। मन में आया, इसके स्पर्श किए हुए शरीर को छोड़ देना ही उत्तम है। राम! उसी समय उस तापसी ने रावण को शाप दिया। 'दुरात्मन! त्ेरा संहार करने के लिए मैं धरातल पर एक उत्तम स्त्री के रूप में प्रकट होऊंगी। मेरे अवतार में माता के गर्भ से कोई संबंध नहीं रहेगा।' इस प्रकार कहकर उस तापसी ने शरीर त्याग दिया। वही यह सीता हैं, जो लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। भ्रमवश सर्प को माला समझकर अपनाने वाले व्यक्ति की भांति अपने वंश का उच्छेद कराने के लिए ही रावण ने इनको हरा है।
राघव! देवताओं ने रावण-वध के लिए सनातन भगवान श्रीहरि से प्रार्थना की थी। परिणामस्वरूप रघुकुल में तुम्हारे रूप में श्रीहरि का प्राकट्य हुआ है। महाबाहो! धैर्य रखो। सदा धर्म में तत्पर रहने वाली साध्वी सीता किसी के वश में नहीं हो सकतीं। उनका मन निरंतर तुम्हारे ध्यान में लीन रहता है। सीता के पीने के लिए स्वयं इंद्र एक पात्र में कामधेनु का दूध रखकर भेजते हैं और उस अमृत के समान मधुर दूध को वह पीती हैं। कमलपत्र के समान विशाल नेत्रवाली सीता को स्वर्गीय सुरभि गौ का दुग्धपान करने से भूख और प्यास का किंचित भी कष्ट नहीं है - यह स्वयं मैंने देखा है।' 'राघव! अब मैं रावणरवध का उपाय बताता हूं। इस आश्विन महीने में तुम श्रद्धापूर्वक नवरात्र का अनुष्ठान करने में लग जओ। राम! नवरात्र में उपवास, भगवती का आराधन तथा सविधि जप और होम संपूर्ण सिद्धियों का दान करने वाले हैं। बहुत पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश और स्वर्गवासी इंद्र तक इस नवरात्र का अनुष्ठान कर चुके हैं। राम! तुम सुखपूर्वक यह पवित्र नवरात्र व्रत करो। किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर पुरुष को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
राघव! विश्वमित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। अतएव राजेंद्र! तुम रावणवध के निमित्त इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करो। वृत्रासुर का वध करने के लिए इंद्र तथा त्रिपुरासुर वध के लिए भगवान शंकर भी इस सर्वोत्कृष्ट व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। महामते। मधु को मारने के लिए भगवान श्रीहरि ने सुमेरु गिरि पर यह व्रत किया था। अतएव राघव! सावधानीपूर्वक तुम्हें भी सविधि यह व्रत अवश्य करना चाहिए।' भगवान राम ने पूछा- 'दयानिधे! आप सर्वज्ञानसंपन्न हैं। विधिपूर्वक यह बताने की कृपा करें कि वे कौन देवी हैं, उनका क्या प्रभाव है, वे कहां से अवतरित हुई हैं तथा उन्हें किस नाम से संबोधित किया जाता है?' नारदजी बोले - 'राम! सुनो, वह देवी आद्या शक्ति हैं। सदा-सर्वदा विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। आराधना करने पर दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। रघुनंदन! ब्रह्मा प्रभृति सभी प्राणियों की निमित्त कारण वही हैं। उनके बिना कोई भी हिल-डुल तक नहीं सकता। मेरे पिता ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शंकर संहार करते हैं। इनमें जो मंगलमयी शक्ति भासित होती है, वही यह देवी हैं। त्रिलोकी में जो सत-असत कहीं कोई भी वस्तु सत्तात्मक रूप से विराजमान है, उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण इस देवी के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। जिस समय किसी की भी सत्ता नहीं थी, उस समय भी इन प्रकृति-शक्ति देवी का परिपूर्ण विग्रह विराजमान था। इन्हीं की शक्ति से एक पुरुष प्रकट होता है और उसके साथ यह आनंद में निमग्न रहती हैं।
यह युग के आरंभ की बात है। उस समय यह कल्याणी निर्गुण कहलाती हैं। इसके बाद यह देवी सगुणरूप से विराजमान होकर तीनों लोकों की सृष्टि करती हैं। इनके द्वारा सर्वप्रथम ब्रह्मा आदि देवताओं का सृजन और उनमें शक्ति का आधान होता है। इन देवी के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर प्राणी जन्म मरण रूपी संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। इन देवी को जानना परम आवश्यक है। वेद इसके बाद प्रकट हुए हैं, अर्थात वेदों की रचना करने का श्रेय इन्हीं को है। ब्रह्मा आदि महानुभावों ने गुण और कर्म के भेद से इन देवी के अनंत नाम बतलाए हैं और वैसे ही कल्पना भी की है। मैं कहां तक वर्णन करूं। रघुनंदन! 'अ'कार से 'क्ष'कारपर्यंत जितने वर्ण और स्वर प्रयुक्त हुए हैं, उनके द्वारा भगवती के असंखय नामों का ही संकलन होता है।' भगवान राम ने कहा-'विप्रवर! आप इस व्रत की संक्षिप्त विधि बतलाने की कृपा करें, क्योंकि अब मैं प्रीतिपूर्वक श्रीदेवी की उपासना करना चाहता हूं। श्री नारद जी बोले- 'राम! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को स्थापित करो और नौ रातों तक उपवास करते हुए उनकी आराधना करो। पूजा सविधि होनी चाहिए।' 'राजन! मैं इस कार्य में आचार्य का काम करूंगा; क्योंकि देवताओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिए मेरे मन में प्रबल उत्साह है।' व्यास जी कहते हैं-'परम प्रतापी भगवान राम ने मुनिवर नारदजी के कथन को सुनकर उसे सत्य माना। एक उत्तम सिंहासन बनवाने की व्यवस्था की और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा के विग्रह को स्थापित किया। व्रती रहकर भगवान ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। उस समय आश्विन मास आ गया था। उत्तम किष्किंधा पर्वत पर यह व्यवस्था हुई थी। नौ दिनों तक उपवास करते हुए भगवान राम इस श्रेष्ठ व्रत को संपन्न करने में संलग्न रहे। विधिवत होम, पूजन आदि की विधि भी पूरी की गई। नारद जी के बतलाए हुए इस व्रत को राम और लक्ष्मण दोनों भाई प्रेमपूर्वक करते रहे। अष्टमी तिथि को आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं। पूजा के उपरांत भगवती सिंह पर बैठी हुई पधारीं और उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को दर्शन दिए। पर्वत के ऊंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवान राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों के प्रति मेघ के समान गंभीर वाणी में वे कहने लगीं। भक्ति की भावना ने भगवती को परम प्रसन्न कर दिया था। देवी ने कहा-'विशाल भुजा से शोभा पानेवाले श्रीराम! अब मैं तुम्हारे व्रत से अत्यंत संतुष्ट हूं। जो तुम्हारे मन में हो, वह अभिलषित वर मुझसे मांग लो। तुम भगवान नारायण के अंश से प्रकट हुए हो। मनु के पावन वंश में तुम्हारा अवतार हुआ है। रावणवध के लिए देवताओं के प्रार्थना करने पर ही तुम अवतरित हुए हो। इसके पूर्व भी मत्स्यावतार धारण करके तुमने भयंकर राक्षस का संहार किया था। उस समय देवताओं का हित करने की इच्छा से तुमने वेदों की रक्षा की थी। फिर कच्छपरूप में प्रकट होकर मंदराचल को पीठ पर धारण किया। इस तरह समुद्र का मंथन करके देवताओं को अमृत द्वारा शक्तिसंपन्न बनाया। राम! तुम वराहरूप से भी प्रकट हो चुके हो। उस समय तुमने पृथ्वी को दांत के अग्रभाग पर उठा रखा था। तुम्हारे हाथों हिरण्याक्ष की जीवन-लीला समाप्त हुई थी। रघुकुल में प्रकट होने वाले श्री राम! तुमने नृसिंहावतार लेकर प्रह्लाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु को मारा। प्राचीन समय में वामन का विग्रह धरकर तुमने बलि को छला। उस समय देवताओं का कार्य साधन करने को तुम इंद्र के छोटे भाई होकर विराजमान थे। भगवान विष्णु के अंश से संपन्न होकर जमदग्नि के पुत्र होने का अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ। उस अवतार में क्षत्रियों को मारकर तुमने पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी। रघुनंदन! उसी प्रकार इस समय तुम राजा दशरथ के यहां पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। तुम्हें अवतार लेने के लिए सभी देवताओं ने प्रार्थना की थी; क्योंकि उन्हें रावण महान् कष्ट दे रहा था। राजन्! अत्यंत बलशाली ये सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, ये तुम्हारे सहायक होंगे। इन सब में मेरी शक्ति निहित है। अनघ! तुम्हारा यह छोटा भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है। रावण के पुत्र मेघनाद को यह अवश्य मार डालेगा, इस विषय में तुम्हें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए। अब तुम्हारा परम कर्तव्य है, इस वसंत ऋतु के नवरात्र में असीम श्रद्धा के साथ उपवास में तत्पर हो जाओ। तदनंतर पापी रावण को मारकर सुखपूर्वक राज्य भोगो। ग्यारह हजार वर्षों तक धरातल पर तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। राघवेंद्र! राज्य भोगने के पश्चात पुनः तुम अपने परमधाम को सिधारोगे।'' व्यास जी ने कहा-''इस प्रकार कहकर भगवती अंतर्धान हो गईं। भगवान राम के मन में प्रसन्नता की सीमा न रही। नवरात्र-व्रत समाप्त करके दशमी के दिन भगवान राम ने प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विजयादशमी की पूजा का कार्य संपन्न किया। जानकी वल्लभ भगवान श्री राम की कीर्ति जगत्प्रसिद्ध है। वे पूर्णकाम हैं। प्रकट होकर परमशक्ति की प्रेरणा पर सुग्रीव के साथ श्रीराम समुद्र के तट पर गए। साथ में लक्ष्मण जी थे। फिर समुद्र में पुल बांधने की व्यवस्था कर देव-शत्रु रावण का वध किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, उसे प्रचुर भोग भोगने के पश्चात् परमपद की उपलब्धि होती है।'
व्यास जी ने कहा-''सीता हरण के समय की बात है। भगवान श्री राम सीता विरह से अत्यंत व्याकुल थे। उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से कहा-'सौमित्रे! जानकी का कुछ भी पता न चला। उसके बिना मेरी मृत्यु बिलकुल निश्चित है। जानकी के बिना अयोध्या में मैं पैर ही न रख सकूंगा। राज्य हाथ से चला गया। बनवासी जीवन व्यतीत करना पड़ा। पिताजी सुरधाम सिधारे। स्त्री हरी गई। पता नहीं, दैव आगे क्या करेगा। मनुके उत्तम वंश में हमारा जन्म हुआ। राजकुमार होने की सुविधा हमें निश्चित सुलभ थी। फिर भी वन में हम असीम दुख भोग रहे हैं। सौमित्रे! तुम भी राजसी भोग का परित्याग करके दुर्दैव की प्रेरणा से मेरे साथ निकल पड़े। लो, अब यह कठिन कष्ट भोगो। लक्ष्मण! जनक सुता सीता बचपन के स्वभाववश हमारे साथ चल पड़ी। दुरात्मा दैव ने उस सुंदरी को भी ऐसे गुरुतर दुख देने वाली दशा में ला पटका। रावण के घर में वह सुंदरी सीता कैसे दुखदायी समय व्यतीत करेगी? उस साध्वी के सभी आचार बड़े पवित्र हैं। मुझ पर वह अपार प्रेम रखती है। लक्ष्मण! सीता रावण के वश में कभी भी नहीं हो सकती। भला जनक के घर उत्पन्न हुई वह सुंदरी किसी दुराचारिणी स्त्री की भांति कैसे रह सकती है। भरतानुज! यदि रावण का घोर नियंत्रण हुआ तो जानकी अपने प्राणों को त्याग देगी; किंतु उसके अधीन नहीं होगी - यह बिलकुल निश्चित बात है। वीर लक्ष्मण! कदाचित् जानकी का जीवन समाप्त हो गया तो मेरे भी प्राण शरीर से बाहर निकल जाएंगे - यह धु्रव सत्य है।' इस प्रकार कमललोचन भगवान राम विलाप कर रहे थे। तब धर्मात्मा लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए सत्यतापूर्वक कहा- 'महाबाहो! संप्रति इस दैन्यभाव का परित्याग करके धैर्य रखिए। मैं उस नीच राक्षस रावण को मारकर माता जानकी को ले आऊंगा। जो सुखमय और दुखमय दोनों स्थितियों में धैर्य धारण कर के एक समान रहते हैं, वे ही बुद्धिमान हैं। कष्ट और वैभव प्राप्त होने पर उसमें रचे-पचे रहना, यह मंदबुद्धि मानवों का काम है। संयोग और वियोग तो होते ही रहते हैं। इसमें शोक क्यों करना चाहिए। जैसे प्रतिकूल समय आने पर राज्य से वंचित होकर वनवास हुआ है, माता सीता हरी गई हैं, वैसे ही अनुकूल समय आने पर संयोग भी हो जाएगा।
भगवन् ! इसमें कुछ भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। अतः अब आप शोक का परित्याग कीजिए। बहुत- से वानर हैं। माता जानकी को खोजने के लिए वे चारों दिशाओं में जाएंगे। उनके प्रयास से माता सीता अवश्य आ जायेंगी, क्योंकि रास्ते के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर मैं वहां जाऊंगा और पूरी शक्ति लगाकर उस नीच रावण को मारने के पश्चात् जानकी को ले आऊंगा। अथवा भैया! सेना और शत्रुघ्नसहित भरत जी को बुलाकर हम तीनों एक साथ हो शत्रु रावण को मार डालेंगे। अतः आप शोक न करें। राघव! प्राचीन समय की बात है। महाराज रघु एक ही रथ पर बैठे और उन्होंने संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली। उन्हीं के कुलदीपक आप हैं, अतः आपका शोक करना किसी प्रकार शोभा नहीं देता। मैं अकेले ही अखिल देवताओं और दानवों को जीतने की शक्ति रखता हूं। फिर मेरे सहायक भी हैं, तब कुलाधम रावण को मारने में क्या संदेह है? मैं जनकजी को भी सहायकरूप में बुला लूंगा। रघुनंदन ! मेरे इस प्रयास से देवताओं का कंटक दुराचारी वह रावण अवश्य ही प्राणों से हाथ धो बैठेगा। राघव! सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख चक्के की भांति निरंतर आते-जाते रहते हैं। सदा कोई एक स्थिति नहीं रह सकती। जिसका अत्यंत दुर्बल मन सुख और दुःख की परिस्थिति में तदनुकूल हो जाता है, वह शोक के अथाह समुद्र में डूबा रहता है। उसे कभी भी सुख नहीं मिल सकता। आप तो इनसे परे हैं।
'रघुनंदन ! बहुत पहले की बात है। इंद्र को भी दुख भोगना पड़ा था। संपूर्ण देवताओं ने मिलकर उनके स्थान पर नहुष की नियुक्ति कर दी थी। वे अपने पद से वंचित होकर डरे हुए कमल के कोष में बैठे रहे। बहुत वर्षों तक उनका अज्ञातवास चलता रहा। पर समय बदलते ही इंद्र को फिर अपना स्थान प्राप्त हो गया। मुनि के शाप से नहुष की आकृति अजगर के समान हो गई और उसे धरातल पर गिर जाना पड़ा। जब उस नरेश के मन में इंद्राणी को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी और वह ब्राह्मणों का अपमान करने लगा, तब अगस्त्य जी कुपित हो गए । इसके परिणामस्वरूप नहुष को सर्पयोनि मिली। अतएव राघव ! दुख की घड़ी सामने आने पर शोक करना उचित नहीं है। विज्ञ पुरुष को चाहिए, इस स्थिति में मन को उद्यमशील बनाकर सावधान रहे। महाभाग ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। जगत्प्रभो ! आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, फिर साधारण मनुष्य की भांति मन में क्यों इतना गुरुतर शोक कर रहे हैं?' व्यासजी ने कहा-लक्ष्मण के उपर्युक्त वचन से भगवान राम का विवेक विकसित हो उठा। अब वे शोक से रहित होकर निश्चिंत हो गए। इस प्रकार भगवान राम और लक्ष्मण परस्पर विचार करके मौन बैठे थे।
इतने में ही महाभाग नारद ऋषि आकाश से उतर आए। उस समय उनकी स्वर ग्राम से विभूषित विशाल वीणा बज रही थी। वे रथंतर साम को उच्च स्वर से गा रहे थे। मुनिजी भगवान् राम के पास पहुंच गए। उन्हें देखकर अमित तेजस्वी श्रीराम उठ खड़े हुए। उन्होंने मुनि को श्रेष्ठ पवित्र आसन दिया। पाद्य और अर्घ्य की व्यवस्था की। भलीभांति पूजा करने के उपरांत हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर मुनि की आज्ञा से उनके पास ही भगवान बैठ गए। उस समय छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके पास थे। उन्हें मानसिक कष्ट तो था ही। मुनिवर नारद ने प्रीतिपूर्वक उनसे कुशल पूछी। साथ ही कहा- 'राघव! तुम साधारण जनों की भांति क्यों इतने दुखी हो? दुरात्मा रावण ने सीता को हर लिया है- यह बात तो मुझे ज्ञात है। मैं देवलोक गया था। वहीं मुझे यह समाचार मिला। अपने मस्तक पर मंडराती हुई मृत्यु को न जानने से ही मोहवश उसकी इस कुकार्य में प्रवृत्ति हुई है। रावण का निधन ही तुम्हारे अवतार का प्रयोजन है। इसीलिए सीता का हरण हुआ है। 'जानकी पूर्वजन्म में मुनि की पुत्री थी। तप करना उसका स्वाभाविक गुण था। वह साध्वी वन में तपस्या कर रही थी। उसे रावण ने देख लिया। राघव ! उस दुष्ट ने मुनिकन्या से प्रार्थना की- 'तुम मेरी भार्या बन जाओ।' मुनिकन्या द्वारा घोर अपमानित होने पर दुरात्मा रावण ने उस तापसी का जूड़ा बलपूर्वक पकड़ लिया। अब तो तपस्विनी की क्रोधाग्नि भड़क उठी। मन में आया, इसके स्पर्श किए हुए शरीर को छोड़ देना ही उत्तम है। राम! उसी समय उस तापसी ने रावण को शाप दिया। 'दुरात्मन! त्ेरा संहार करने के लिए मैं धरातल पर एक उत्तम स्त्री के रूप में प्रकट होऊंगी। मेरे अवतार में माता के गर्भ से कोई संबंध नहीं रहेगा।' इस प्रकार कहकर उस तापसी ने शरीर त्याग दिया। वही यह सीता हैं, जो लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। भ्रमवश सर्प को माला समझकर अपनाने वाले व्यक्ति की भांति अपने वंश का उच्छेद कराने के लिए ही रावण ने इनको हरा है।
राघव! देवताओं ने रावण-वध के लिए सनातन भगवान श्रीहरि से प्रार्थना की थी। परिणामस्वरूप रघुकुल में तुम्हारे रूप में श्रीहरि का प्राकट्य हुआ है। महाबाहो! धैर्य रखो। सदा धर्म में तत्पर रहने वाली साध्वी सीता किसी के वश में नहीं हो सकतीं। उनका मन निरंतर तुम्हारे ध्यान में लीन रहता है। सीता के पीने के लिए स्वयं इंद्र एक पात्र में कामधेनु का दूध रखकर भेजते हैं और उस अमृत के समान मधुर दूध को वह पीती हैं। कमलपत्र के समान विशाल नेत्रवाली सीता को स्वर्गीय सुरभि गौ का दुग्धपान करने से भूख और प्यास का किंचित भी कष्ट नहीं है - यह स्वयं मैंने देखा है।' 'राघव! अब मैं रावणरवध का उपाय बताता हूं। इस आश्विन महीने में तुम श्रद्धापूर्वक नवरात्र का अनुष्ठान करने में लग जओ। राम! नवरात्र में उपवास, भगवती का आराधन तथा सविधि जप और होम संपूर्ण सिद्धियों का दान करने वाले हैं। बहुत पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश और स्वर्गवासी इंद्र तक इस नवरात्र का अनुष्ठान कर चुके हैं। राम! तुम सुखपूर्वक यह पवित्र नवरात्र व्रत करो। किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर पुरुष को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
राघव! विश्वमित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। अतएव राजेंद्र! तुम रावणवध के निमित्त इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करो। वृत्रासुर का वध करने के लिए इंद्र तथा त्रिपुरासुर वध के लिए भगवान शंकर भी इस सर्वोत्कृष्ट व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। महामते। मधु को मारने के लिए भगवान श्रीहरि ने सुमेरु गिरि पर यह व्रत किया था। अतएव राघव! सावधानीपूर्वक तुम्हें भी सविधि यह व्रत अवश्य करना चाहिए।' भगवान राम ने पूछा- 'दयानिधे! आप सर्वज्ञानसंपन्न हैं। विधिपूर्वक यह बताने की कृपा करें कि वे कौन देवी हैं, उनका क्या प्रभाव है, वे कहां से अवतरित हुई हैं तथा उन्हें किस नाम से संबोधित किया जाता है?' नारदजी बोले - 'राम! सुनो, वह देवी आद्या शक्ति हैं। सदा-सर्वदा विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। आराधना करने पर दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। रघुनंदन! ब्रह्मा प्रभृति सभी प्राणियों की निमित्त कारण वही हैं। उनके बिना कोई भी हिल-डुल तक नहीं सकता। मेरे पिता ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शंकर संहार करते हैं। इनमें जो मंगलमयी शक्ति भासित होती है, वही यह देवी हैं। त्रिलोकी में जो सत-असत कहीं कोई भी वस्तु सत्तात्मक रूप से विराजमान है, उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण इस देवी के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। जिस समय किसी की भी सत्ता नहीं थी, उस समय भी इन प्रकृति-शक्ति देवी का परिपूर्ण विग्रह विराजमान था। इन्हीं की शक्ति से एक पुरुष प्रकट होता है और उसके साथ यह आनंद में निमग्न रहती हैं।
यह युग के आरंभ की बात है। उस समय यह कल्याणी निर्गुण कहलाती हैं। इसके बाद यह देवी सगुणरूप से विराजमान होकर तीनों लोकों की सृष्टि करती हैं। इनके द्वारा सर्वप्रथम ब्रह्मा आदि देवताओं का सृजन और उनमें शक्ति का आधान होता है। इन देवी के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर प्राणी जन्म मरण रूपी संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। इन देवी को जानना परम आवश्यक है। वेद इसके बाद प्रकट हुए हैं, अर्थात वेदों की रचना करने का श्रेय इन्हीं को है। ब्रह्मा आदि महानुभावों ने गुण और कर्म के भेद से इन देवी के अनंत नाम बतलाए हैं और वैसे ही कल्पना भी की है। मैं कहां तक वर्णन करूं। रघुनंदन! 'अ'कार से 'क्ष'कारपर्यंत जितने वर्ण और स्वर प्रयुक्त हुए हैं, उनके द्वारा भगवती के असंखय नामों का ही संकलन होता है।' भगवान राम ने कहा-'विप्रवर! आप इस व्रत की संक्षिप्त विधि बतलाने की कृपा करें, क्योंकि अब मैं प्रीतिपूर्वक श्रीदेवी की उपासना करना चाहता हूं। श्री नारद जी बोले- 'राम! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को स्थापित करो और नौ रातों तक उपवास करते हुए उनकी आराधना करो। पूजा सविधि होनी चाहिए।' 'राजन! मैं इस कार्य में आचार्य का काम करूंगा; क्योंकि देवताओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिए मेरे मन में प्रबल उत्साह है।' व्यास जी कहते हैं-'परम प्रतापी भगवान राम ने मुनिवर नारदजी के कथन को सुनकर उसे सत्य माना। एक उत्तम सिंहासन बनवाने की व्यवस्था की और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा के विग्रह को स्थापित किया। व्रती रहकर भगवान ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। उस समय आश्विन मास आ गया था। उत्तम किष्किंधा पर्वत पर यह व्यवस्था हुई थी। नौ दिनों तक उपवास करते हुए भगवान राम इस श्रेष्ठ व्रत को संपन्न करने में संलग्न रहे। विधिवत होम, पूजन आदि की विधि भी पूरी की गई। नारद जी के बतलाए हुए इस व्रत को राम और लक्ष्मण दोनों भाई प्रेमपूर्वक करते रहे। अष्टमी तिथि को आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं। पूजा के उपरांत भगवती सिंह पर बैठी हुई पधारीं और उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को दर्शन दिए। पर्वत के ऊंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवान राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों के प्रति मेघ के समान गंभीर वाणी में वे कहने लगीं। भक्ति की भावना ने भगवती को परम प्रसन्न कर दिया था। देवी ने कहा-'विशाल भुजा से शोभा पानेवाले श्रीराम! अब मैं तुम्हारे व्रत से अत्यंत संतुष्ट हूं। जो तुम्हारे मन में हो, वह अभिलषित वर मुझसे मांग लो। तुम भगवान नारायण के अंश से प्रकट हुए हो। मनु के पावन वंश में तुम्हारा अवतार हुआ है। रावणवध के लिए देवताओं के प्रार्थना करने पर ही तुम अवतरित हुए हो। इसके पूर्व भी मत्स्यावतार धारण करके तुमने भयंकर राक्षस का संहार किया था। उस समय देवताओं का हित करने की इच्छा से तुमने वेदों की रक्षा की थी। फिर कच्छपरूप में प्रकट होकर मंदराचल को पीठ पर धारण किया। इस तरह समुद्र का मंथन करके देवताओं को अमृत द्वारा शक्तिसंपन्न बनाया। राम! तुम वराहरूप से भी प्रकट हो चुके हो। उस समय तुमने पृथ्वी को दांत के अग्रभाग पर उठा रखा था। तुम्हारे हाथों हिरण्याक्ष की जीवन-लीला समाप्त हुई थी। रघुकुल में प्रकट होने वाले श्री राम! तुमने नृसिंहावतार लेकर प्रह्लाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु को मारा। प्राचीन समय में वामन का विग्रह धरकर तुमने बलि को छला। उस समय देवताओं का कार्य साधन करने को तुम इंद्र के छोटे भाई होकर विराजमान थे। भगवान विष्णु के अंश से संपन्न होकर जमदग्नि के पुत्र होने का अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ। उस अवतार में क्षत्रियों को मारकर तुमने पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी। रघुनंदन! उसी प्रकार इस समय तुम राजा दशरथ के यहां पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। तुम्हें अवतार लेने के लिए सभी देवताओं ने प्रार्थना की थी; क्योंकि उन्हें रावण महान् कष्ट दे रहा था। राजन्! अत्यंत बलशाली ये सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, ये तुम्हारे सहायक होंगे। इन सब में मेरी शक्ति निहित है। अनघ! तुम्हारा यह छोटा भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है। रावण के पुत्र मेघनाद को यह अवश्य मार डालेगा, इस विषय में तुम्हें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए। अब तुम्हारा परम कर्तव्य है, इस वसंत ऋतु के नवरात्र में असीम श्रद्धा के साथ उपवास में तत्पर हो जाओ। तदनंतर पापी रावण को मारकर सुखपूर्वक राज्य भोगो। ग्यारह हजार वर्षों तक धरातल पर तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। राघवेंद्र! राज्य भोगने के पश्चात पुनः तुम अपने परमधाम को सिधारोगे।'' व्यास जी ने कहा-''इस प्रकार कहकर भगवती अंतर्धान हो गईं। भगवान राम के मन में प्रसन्नता की सीमा न रही। नवरात्र-व्रत समाप्त करके दशमी के दिन भगवान राम ने प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विजयादशमी की पूजा का कार्य संपन्न किया। जानकी वल्लभ भगवान श्री राम की कीर्ति जगत्प्रसिद्ध है। वे पूर्णकाम हैं। प्रकट होकर परमशक्ति की प्रेरणा पर सुग्रीव के साथ श्रीराम समुद्र के तट पर गए। साथ में लक्ष्मण जी थे। फिर समुद्र में पुल बांधने की व्यवस्था कर देव-शत्रु रावण का वध किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, उसे प्रचुर भोग भोगने के पश्चात् परमपद की उपलब्धि होती है।'