tag:blogger.com,1999:blog-42865248170692219652023-11-15T20:35:56.090+05:30पुराण कथागीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comBlogger172125tag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-22889625401355222262017-06-17T20:11:00.000+05:302019-09-30T20:03:05.118+05:30राधा और कृष्ण के विवाह की कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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श्रीकृष्ण के गुरू गर्गाचार्य जी द्वारा रचित “गर्ग संहिता” में भगवान श्रीकृष्ण और उनकी लीलाओं का सबसे पौराणिक आधार का वर्णन किया गया है। गर्ग संहिता के सोलहवें अध्याय में राधा और कृष्ण के विवाह की कथा है।</div>
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कथा की शुरूआत श्रीकृष्ण के बाल अवस्था से होती है। जब कृष्ण की उम्र महज दो साल सात महीने थी। एक बार नंद बाबा बालक कृष्ण को लेकर अपने गोद में खिला रहे हैं। उनके साथ दुलार करते हुए वो वृंदावन के भांडीरवन में आ जाते हैं।</div>
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<a href="https://new-img.patrika.com/upload/2018/02/22/radhakrishna_4390667_835x547-m.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="524" data-original-width="800" height="209" src="https://new-img.patrika.com/upload/2018/02/22/radhakrishna_4390667_835x547-m.jpg" width="320" /></a></div>
बालक कृष्ण के सुंदर मुख को देखते हुए उनके मन में ख्याल आता है कि वो कितने खुशनसीब हैं कि खुद भगवान उनकी गोद में खेल रहे हैं। नंद बाबा को ये पता रहता है कि बालक कृष्ण कोई साधारण बालक नहीं है। नंद के मन में भक्ति का भाव उमड़ता है। इस बीच एक बड़ी ही अनोखी घटना घटती है। अचानक तेज हवाएं चलने लगती हैं। बिजली कौंधने लगती है। देखते ही देखते चारों ओर अंधेरा छा जाता है। और इसी अंधेरे में एक बहुत ही दिव्य रोशनी आकाश मार्ग से नीचे आती है। नंद जी समझ जाते हैं कि ये कोई और नहीं खुद राधा देवी हैं जो कृष्ण के लिए इस वन में आई हैं। वो झुककर उन्हें प्रणाम करते हैं। और बालक कृष्ण को उनकी गोद में देते हुए कहते हैं कि हे देवी! मैं इतना भाग्यशाली हूं कि भगवान कृष्ण मेरी गोद में हैं और आपका मैं साक्षात् दर्शन कर रहा हूं। भगवान कृष्ण को राधा के हवाले करके नंद जी घर वापस आते हैं तब तक तूफान थम जाता है। अंधेरा दिव्य प्रकाश में बदल जाता है और इसके साथ ही भगवान भी अपने बालक रूप का त्याग कर के किशोर बन जाते हैं। भांडीरवन के पास ही एक वंशी वन है जहां भगवान कृष्ण अक्सर वंशी बजाने जाया करते थे। कहा जाता है कि हज़ारों साल पुराना वंशी वन आज भी मौजूद है साथ ही वो वृक्ष भी मौजूद है जिसपर कृष्ण भगवान बांसुरी बजाए करते थे। कहा तो इतना जाता है कि आज भी अगर उस वृक्ष में कान लगाकर सुनेंगे तो आपको बांसुरी और तबले की आवाज़ सुनाई देती है। राधा से शादी के बाद भगवान कृष्ण काफ़ी दिनों तक इस वन में रहे। लेकिन एक दिन उन्हें अचानक नंद गांव की याद आ गई। विवाह के बाद काफ़ी दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ इन वनों में रास रचाते रहे। लेकिन एक दिन उन्हें नंद गांव की याद आई और वो राधा की गोद में वैसे ही बालक बन गए जैसे राधा को नंद जी ने दिया था। इस घटना के बाद तो राधा रोने लगी। इसके बाद एक आकाशवाणी हुई। “हे राधा! इस वक्त शोक मत करो। अब तुम्हारा मनोरथ कुछ वक्त के बाद पूरा होगा।” राधा समझ गई कि भगवान अब अपने उस काम के लिए आगे बढ़ रहे हैं जिसके लिए उन्होंने अवतार लिया है। इसके बाद राधा भगवान श्रीकृष्ण के बालक रुप को गोद में लेकर नंद गांव गई और नंद के हाथों बाल गोपाल को समर्पित कर दिया</div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-34321518875087341872016-05-23T13:43:00.000+05:302019-09-30T20:05:32.195+05:30नारद जी की जन्म कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><span style="text-align: justify;"><b>नारद </b></span><b>जन्म कथा</b></span><br />
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<a href="http://media.webdunia.com/_media/hi/img/article/2019-05/17/full/1558086171-4047.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://media.webdunia.com/_media/hi/img/article/2019-05/17/full/1558086171-4047.jpg" data-original-height="592" data-original-width="740" height="256" width="320"></a></div>
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देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गए। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शाप दे दिया। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगीं।</div>
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एक दिन गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहीं ठहर गए। नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील थे। वह खेलकूद छोड़ कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो यह तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिए दे देते थे।</div>
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साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गए। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।</div>
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एक दिन सांप के काटने से उनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर तक अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गए।</div>
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भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिए नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गई। वह बार-बार अपने मन को समेट कर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे, किंतु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशावाणी हुई, ‘‘अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’’</div>
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समय आने पर नारद जी का पांच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। यह भगवान की भक्ति और महात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद् गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है। अब भी यह अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही उन्हें भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिए ही है। यह ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। </div>
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अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं।</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-25831453608709542582013-10-05T22:33:00.000+05:302019-09-30T20:08:47.064+05:30शारदीय नवरात्र व्रत कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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नवरात्र प्रसंग में श्री रामचरित मानस का बड़ा ही दिव्य वर्णन है। इस संदर्भ में जनमेजय एवं वेदव्यास का कथोपकथन श्रवण योग्य एवं अनुकरणीय है। उक्त कथोपकथन में जिज्ञासावश जनमेजय ने महात्मा वेदव्यास से पूछा कि भगवान राम ने नवरात्र व्रत क्यों किया था? उन्हें वनवास क्यों दिया गया? सीता जी का हरण हो जाने पर उन्हें प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या किया?<br />
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<a href="https://c.ndtvimg.com/2018-10/q0jpo2qo_navratri-colors-2018:-significance-of-9-colors-of-maa-durga-festival-navratri_625x300_12_October_18.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="650" height="196" src="https://c.ndtvimg.com/2018-10/q0jpo2qo_navratri-colors-2018:-significance-of-9-colors-of-maa-durga-festival-navratri_625x300_12_October_18.jpg" width="320" /></a></div>
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व्यास जी ने कहा-''सीता हरण के समय की बात है। भगवान श्री राम सीता विरह से अत्यंत व्याकुल थे। उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से कहा-'सौमित्रे! जानकी का कुछ भी पता न चला। उसके बिना मेरी मृत्यु बिलकुल निश्चित है। जानकी के बिना अयोध्या में मैं पैर ही न रख सकूंगा। राज्य हाथ से चला गया। बनवासी जीवन व्यतीत करना पड़ा। पिताजी सुरधाम सिधारे। स्त्री हरी गई। पता नहीं, दैव आगे क्या करेगा। मनुके उत्तम वंश में हमारा जन्म हुआ। राजकुमार होने की सुविधा हमें निश्चित सुलभ थी। फिर भी वन में हम असीम दुख भोग रहे हैं। सौमित्रे! तुम भी राजसी भोग का परित्याग करके दुर्दैव की प्रेरणा से मेरे साथ निकल पड़े। लो, अब यह कठिन कष्ट भोगो। लक्ष्मण! जनक सुता सीता बचपन के स्वभाववश हमारे साथ चल पड़ी। दुरात्मा दैव ने उस सुंदरी को भी ऐसे गुरुतर दुख देने वाली दशा में ला पटका। रावण के घर में वह सुंदरी सीता कैसे दुखदायी समय व्यतीत करेगी? उस साध्वी के सभी आचार बड़े पवित्र हैं। मुझ पर वह अपार प्रेम रखती है। लक्ष्मण! सीता रावण के वश में कभी भी नहीं हो सकती। भला जनक के घर उत्पन्न हुई वह सुंदरी किसी दुराचारिणी स्त्री की भांति कैसे रह सकती है। भरतानुज! यदि रावण का घोर नियंत्रण हुआ तो जानकी अपने प्राणों को त्याग देगी; किंतु उसके अधीन नहीं होगी - यह बिलकुल निश्चित बात है। वीर लक्ष्मण! कदाचित् जानकी का जीवन समाप्त हो गया तो मेरे भी प्राण शरीर से बाहर निकल जाएंगे - यह धु्रव सत्य है।' इस प्रकार कमललोचन भगवान राम विलाप कर रहे थे। तब धर्मात्मा लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए सत्यतापूर्वक कहा- 'महाबाहो! संप्रति इस दैन्यभाव का परित्याग करके धैर्य रखिए। मैं उस नीच राक्षस रावण को मारकर माता जानकी को ले आऊंगा। जो सुखमय और दुखमय दोनों स्थितियों में धैर्य धारण कर के एक समान रहते हैं, वे ही बुद्धिमान हैं। कष्ट और वैभव प्राप्त होने पर उसमें रचे-पचे रहना, यह मंदबुद्धि मानवों का काम है। संयोग और वियोग तो होते ही रहते हैं। इसमें शोक क्यों करना चाहिए। जैसे प्रतिकूल समय आने पर राज्य से वंचित होकर वनवास हुआ है, माता सीता हरी गई हैं, वैसे ही अनुकूल समय आने पर संयोग भी हो जाएगा।<br />
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भगवन् ! इसमें कुछ भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। अतः अब आप शोक का परित्याग कीजिए। बहुत- से वानर हैं। माता जानकी को खोजने के लिए वे चारों दिशाओं में जाएंगे। उनके प्रयास से माता सीता अवश्य आ जायेंगी, क्योंकि रास्ते के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर मैं वहां जाऊंगा और पूरी शक्ति लगाकर उस नीच रावण को मारने के पश्चात् जानकी को ले आऊंगा। अथवा भैया! सेना और शत्रुघ्नसहित भरत जी को बुलाकर हम तीनों एक साथ हो शत्रु रावण को मार डालेंगे। अतः आप शोक न करें। राघव! प्राचीन समय की बात है। महाराज रघु एक ही रथ पर बैठे और उन्होंने संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली। उन्हीं के कुलदीपक आप हैं, अतः आपका शोक करना किसी प्रकार शोभा नहीं देता। मैं अकेले ही अखिल देवताओं और दानवों को जीतने की शक्ति रखता हूं। फिर मेरे सहायक भी हैं, तब कुलाधम रावण को मारने में क्या संदेह है? मैं जनकजी को भी सहायकरूप में बुला लूंगा। रघुनंदन ! मेरे इस प्रयास से देवताओं का कंटक दुराचारी वह रावण अवश्य ही प्राणों से हाथ धो बैठेगा। राघव! सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख चक्के की भांति निरंतर आते-जाते रहते हैं। सदा कोई एक स्थिति नहीं रह सकती। जिसका अत्यंत दुर्बल मन सुख और दुःख की परिस्थिति में तदनुकूल हो जाता है, वह शोक के अथाह समुद्र में डूबा रहता है। उसे कभी भी सुख नहीं मिल सकता। आप तो इनसे परे हैं।<br />
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'रघुनंदन ! बहुत पहले की बात है। इंद्र को भी दुख भोगना पड़ा था। संपूर्ण देवताओं ने मिलकर उनके स्थान पर नहुष की नियुक्ति कर दी थी। वे अपने पद से वंचित होकर डरे हुए कमल के कोष में बैठे रहे। बहुत वर्षों तक उनका अज्ञातवास चलता रहा। पर समय बदलते ही इंद्र को फिर अपना स्थान प्राप्त हो गया। मुनि के शाप से नहुष की आकृति अजगर के समान हो गई और उसे धरातल पर गिर जाना पड़ा। जब उस नरेश के मन में इंद्राणी को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी और वह ब्राह्मणों का अपमान करने लगा, तब अगस्त्य जी कुपित हो गए । इसके परिणामस्वरूप नहुष को सर्पयोनि मिली। अतएव राघव ! दुख की घड़ी सामने आने पर शोक करना उचित नहीं है। विज्ञ पुरुष को चाहिए, इस स्थिति में मन को उद्यमशील बनाकर सावधान रहे। महाभाग ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। जगत्प्रभो ! आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, फिर साधारण मनुष्य की भांति मन में क्यों इतना गुरुतर शोक कर रहे हैं?' व्यासजी ने कहा-लक्ष्मण के उपर्युक्त वचन से भगवान राम का विवेक विकसित हो उठा। अब वे शोक से रहित होकर निश्चिंत हो गए। इस प्रकार भगवान राम और लक्ष्मण परस्पर विचार करके मौन बैठे थे।<br />
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इतने में ही महाभाग नारद ऋषि आकाश से उतर आए। उस समय उनकी स्वर ग्राम से विभूषित विशाल वीणा बज रही थी। वे रथंतर साम को उच्च स्वर से गा रहे थे। मुनिजी भगवान् राम के पास पहुंच गए। उन्हें देखकर अमित तेजस्वी श्रीराम उठ खड़े हुए। उन्होंने मुनि को श्रेष्ठ पवित्र आसन दिया। पाद्य और अर्घ्य की व्यवस्था की। भलीभांति पूजा करने के उपरांत हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर मुनि की आज्ञा से उनके पास ही भगवान बैठ गए। उस समय छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके पास थे। उन्हें मानसिक कष्ट तो था ही। मुनिवर नारद ने प्रीतिपूर्वक उनसे कुशल पूछी। साथ ही कहा- 'राघव! तुम साधारण जनों की भांति क्यों इतने दुखी हो? दुरात्मा रावण ने सीता को हर लिया है- यह बात तो मुझे ज्ञात है। मैं देवलोक गया था। वहीं मुझे यह समाचार मिला। अपने मस्तक पर मंडराती हुई मृत्यु को न जानने से ही मोहवश उसकी इस कुकार्य में प्रवृत्ति हुई है। रावण का निधन ही तुम्हारे अवतार का प्रयोजन है। इसीलिए सीता का हरण हुआ है। 'जानकी पूर्वजन्म में मुनि की पुत्री थी। तप करना उसका स्वाभाविक गुण था। वह साध्वी वन में तपस्या कर रही थी। उसे रावण ने देख लिया। राघव ! उस दुष्ट ने मुनिकन्या से प्रार्थना की- 'तुम मेरी भार्या बन जाओ।' मुनिकन्या द्वारा घोर अपमानित होने पर दुरात्मा रावण ने उस तापसी का जूड़ा बलपूर्वक पकड़ लिया। अब तो तपस्विनी की क्रोधाग्नि भड़क उठी। मन में आया, इसके स्पर्श किए हुए शरीर को छोड़ देना ही उत्तम है। राम! उसी समय उस तापसी ने रावण को शाप दिया। 'दुरात्मन! त्ेरा संहार करने के लिए मैं धरातल पर एक उत्तम स्त्री के रूप में प्रकट होऊंगी। मेरे अवतार में माता के गर्भ से कोई संबंध नहीं रहेगा।' इस प्रकार कहकर उस तापसी ने शरीर त्याग दिया। वही यह सीता हैं, जो लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। भ्रमवश सर्प को माला समझकर अपनाने वाले व्यक्ति की भांति अपने वंश का उच्छेद कराने के लिए ही रावण ने इनको हरा है।<br />
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राघव! देवताओं ने रावण-वध के लिए सनातन भगवान श्रीहरि से प्रार्थना की थी। परिणामस्वरूप रघुकुल में तुम्हारे रूप में श्रीहरि का प्राकट्य हुआ है। महाबाहो! धैर्य रखो। सदा धर्म में तत्पर रहने वाली साध्वी सीता किसी के वश में नहीं हो सकतीं। उनका मन निरंतर तुम्हारे ध्यान में लीन रहता है। सीता के पीने के लिए स्वयं इंद्र एक पात्र में कामधेनु का दूध रखकर भेजते हैं और उस अमृत के समान मधुर दूध को वह पीती हैं। कमलपत्र के समान विशाल नेत्रवाली सीता को स्वर्गीय सुरभि गौ का दुग्धपान करने से भूख और प्यास का किंचित भी कष्ट नहीं है - यह स्वयं मैंने देखा है।' 'राघव! अब मैं रावणरवध का उपाय बताता हूं। इस आश्विन महीने में तुम श्रद्धापूर्वक नवरात्र का अनुष्ठान करने में लग जओ। राम! नवरात्र में उपवास, भगवती का आराधन तथा सविधि जप और होम संपूर्ण सिद्धियों का दान करने वाले हैं। बहुत पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश और स्वर्गवासी इंद्र तक इस नवरात्र का अनुष्ठान कर चुके हैं। राम! तुम सुखपूर्वक यह पवित्र नवरात्र व्रत करो। किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर पुरुष को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।<br />
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राघव! विश्वमित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। अतएव राजेंद्र! तुम रावणवध के निमित्त इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करो। वृत्रासुर का वध करने के लिए इंद्र तथा त्रिपुरासुर वध के लिए भगवान शंकर भी इस सर्वोत्कृष्ट व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। महामते। मधु को मारने के लिए भगवान श्रीहरि ने सुमेरु गिरि पर यह व्रत किया था। अतएव राघव! सावधानीपूर्वक तुम्हें भी सविधि यह व्रत अवश्य करना चाहिए।' भगवान राम ने पूछा- 'दयानिधे! आप सर्वज्ञानसंपन्न हैं। विधिपूर्वक यह बताने की कृपा करें कि वे कौन देवी हैं, उनका क्या प्रभाव है, वे कहां से अवतरित हुई हैं तथा उन्हें किस नाम से संबोधित किया जाता है?' नारदजी बोले - 'राम! सुनो, वह देवी आद्या शक्ति हैं। सदा-सर्वदा विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। आराधना करने पर दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। रघुनंदन! ब्रह्मा प्रभृति सभी प्राणियों की निमित्त कारण वही हैं। उनके बिना कोई भी हिल-डुल तक नहीं सकता। मेरे पिता ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शंकर संहार करते हैं। इनमें जो मंगलमयी शक्ति भासित होती है, वही यह देवी हैं। त्रिलोकी में जो सत-असत कहीं कोई भी वस्तु सत्तात्मक रूप से विराजमान है, उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण इस देवी के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। जिस समय किसी की भी सत्ता नहीं थी, उस समय भी इन प्रकृति-शक्ति देवी का परिपूर्ण विग्रह विराजमान था। इन्हीं की शक्ति से एक पुरुष प्रकट होता है और उसके साथ यह आनंद में निमग्न रहती हैं।<br />
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यह युग के आरंभ की बात है। उस समय यह कल्याणी निर्गुण कहलाती हैं। इसके बाद यह देवी सगुणरूप से विराजमान होकर तीनों लोकों की सृष्टि करती हैं। इनके द्वारा सर्वप्रथम ब्रह्मा आदि देवताओं का सृजन और उनमें शक्ति का आधान होता है। इन देवी के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर प्राणी जन्म मरण रूपी संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। इन देवी को जानना परम आवश्यक है। वेद इसके बाद प्रकट हुए हैं, अर्थात वेदों की रचना करने का श्रेय इन्हीं को है। ब्रह्मा आदि महानुभावों ने गुण और कर्म के भेद से इन देवी के अनंत नाम बतलाए हैं और वैसे ही कल्पना भी की है। मैं कहां तक वर्णन करूं। रघुनंदन! 'अ'कार से 'क्ष'कारपर्यंत जितने वर्ण और स्वर प्रयुक्त हुए हैं, उनके द्वारा भगवती के असंखय नामों का ही संकलन होता है।' भगवान राम ने कहा-'विप्रवर! आप इस व्रत की संक्षिप्त विधि बतलाने की कृपा करें, क्योंकि अब मैं प्रीतिपूर्वक श्रीदेवी की उपासना करना चाहता हूं। श्री नारद जी बोले- 'राम! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को स्थापित करो और नौ रातों तक उपवास करते हुए उनकी आराधना करो। पूजा सविधि होनी चाहिए।' 'राजन! मैं इस कार्य में आचार्य का काम करूंगा; क्योंकि देवताओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिए मेरे मन में प्रबल उत्साह है।' व्यास जी कहते हैं-'परम प्रतापी भगवान राम ने मुनिवर नारदजी के कथन को सुनकर उसे सत्य माना। एक उत्तम सिंहासन बनवाने की व्यवस्था की और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा के विग्रह को स्थापित किया। व्रती रहकर भगवान ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। उस समय आश्विन मास आ गया था। उत्तम किष्किंधा पर्वत पर यह व्यवस्था हुई थी। नौ दिनों तक उपवास करते हुए भगवान राम इस श्रेष्ठ व्रत को संपन्न करने में संलग्न रहे। विधिवत होम, पूजन आदि की विधि भी पूरी की गई। नारद जी के बतलाए हुए इस व्रत को राम और लक्ष्मण दोनों भाई प्रेमपूर्वक करते रहे। अष्टमी तिथि को आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं। पूजा के उपरांत भगवती सिंह पर बैठी हुई पधारीं और उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को दर्शन दिए। पर्वत के ऊंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवान राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों के प्रति मेघ के समान गंभीर वाणी में वे कहने लगीं। भक्ति की भावना ने भगवती को परम प्रसन्न कर दिया था। देवी ने कहा-'विशाल भुजा से शोभा पानेवाले श्रीराम! अब मैं तुम्हारे व्रत से अत्यंत संतुष्ट हूं। जो तुम्हारे मन में हो, वह अभिलषित वर मुझसे मांग लो। तुम भगवान नारायण के अंश से प्रकट हुए हो। मनु के पावन वंश में तुम्हारा अवतार हुआ है। रावणवध के लिए देवताओं के प्रार्थना करने पर ही तुम अवतरित हुए हो। इसके पूर्व भी मत्स्यावतार धारण करके तुमने भयंकर राक्षस का संहार किया था। उस समय देवताओं का हित करने की इच्छा से तुमने वेदों की रक्षा की थी। फिर कच्छपरूप में प्रकट होकर मंदराचल को पीठ पर धारण किया। इस तरह समुद्र का मंथन करके देवताओं को अमृत द्वारा शक्तिसंपन्न बनाया। राम! तुम वराहरूप से भी प्रकट हो चुके हो। उस समय तुमने पृथ्वी को दांत के अग्रभाग पर उठा रखा था। तुम्हारे हाथों हिरण्याक्ष की जीवन-लीला समाप्त हुई थी। रघुकुल में प्रकट होने वाले श्री राम! तुमने नृसिंहावतार लेकर प्रह्लाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु को मारा। प्राचीन समय में वामन का विग्रह धरकर तुमने बलि को छला। उस समय देवताओं का कार्य साधन करने को तुम इंद्र के छोटे भाई होकर विराजमान थे। भगवान विष्णु के अंश से संपन्न होकर जमदग्नि के पुत्र होने का अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ। उस अवतार में क्षत्रियों को मारकर तुमने पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी। रघुनंदन! उसी प्रकार इस समय तुम राजा दशरथ के यहां पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। तुम्हें अवतार लेने के लिए सभी देवताओं ने प्रार्थना की थी; क्योंकि उन्हें रावण महान् कष्ट दे रहा था। राजन्! अत्यंत बलशाली ये सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, ये तुम्हारे सहायक होंगे। इन सब में मेरी शक्ति निहित है। अनघ! तुम्हारा यह छोटा भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है। रावण के पुत्र मेघनाद को यह अवश्य मार डालेगा, इस विषय में तुम्हें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए। अब तुम्हारा परम कर्तव्य है, इस वसंत ऋतु के नवरात्र में असीम श्रद्धा के साथ उपवास में तत्पर हो जाओ। तदनंतर पापी रावण को मारकर सुखपूर्वक राज्य भोगो। ग्यारह हजार वर्षों तक धरातल पर तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। राघवेंद्र! राज्य भोगने के पश्चात पुनः तुम अपने परमधाम को सिधारोगे।'' व्यास जी ने कहा-''इस प्रकार कहकर भगवती अंतर्धान हो गईं। भगवान राम के मन में प्रसन्नता की सीमा न रही। नवरात्र-व्रत समाप्त करके दशमी के दिन भगवान राम ने प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विजयादशमी की पूजा का कार्य संपन्न किया। जानकी वल्लभ भगवान श्री राम की कीर्ति जगत्प्रसिद्ध है। वे पूर्णकाम हैं। प्रकट होकर परमशक्ति की प्रेरणा पर सुग्रीव के साथ श्रीराम समुद्र के तट पर गए। साथ में लक्ष्मण जी थे। फिर समुद्र में पुल बांधने की व्यवस्था कर देव-शत्रु रावण का वध किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, उसे प्रचुर भोग भोगने के पश्चात् परमपद की उपलब्धि होती है।' </div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-89778082765387801302012-11-16T17:46:00.000+05:302012-11-16T17:46:04.877+05:30ऋषिकुमार किन्दम का पाण्डु को शाप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px;">
राजा पाण्डु वन में विचर रहे थे। वह वन हिंस्र प्राणियों से भरा हुआ तथा बड़ा भयंकर था। वन में विचरते-विचरते उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरणावस्था को प्राप्त हुए उस मृग ने पाण्डु से कहा, “राजन! तुम्हारे जैसा क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। अत्यन्त कामी, क्रोधी, बुद्धिहीन और पापी मनुष्य भी ऐसा क्रूर कर्म नहीं करते। मुझ निरपराध का वध करके आपको क्या लाभ मिला? मैं किन्दम नाम का तपस्वी मुनि हूँ। मनुष्य के रूप मैथुन कर्म करने में मुझे लज्जा का अनुभव होने के कारण से मैने मृग का रूप धारण किया था। मैं ब्राह्मण हूँ इस बात से अनजान होने के कारण आपको ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा किन्तु जिस अवस्था में आपने मुझे मारा है, वह किसी के वध करने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थी। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः मैं तुझे शाप देता हूँ कि जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।” इतना कहकर किन्दम ने अपने प्राण त्याग दिए।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px;">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px;">
इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-71814613480554822172012-11-16T17:44:00.000+05:302012-11-16T17:44:07.808+05:30धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर का विवाह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
भीष्म के देखरेख में धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर विद्याध्ययन करने लगे तथा तीनों नीतिशास्त्र, इतिहास, पुराण, गजशिक्षा तथा विद्या के अन्य क्षेत्रों में निपुण हो गए। पाण्डु श्रेष्ठ धनुर्धर थे, धृतराष्ट्र सर्वाधिक बलवान और विदुर श्रेष्ठ धर्मपरायण एवं नीतिपरायण। काल व्यतीत होने के साथ ही वे तीनों युवावस्था को प्राप्त हुए। धृतराष्ट्र जन्मांध थे और विदुर दासीपुत्र, इसलिए भीष्म ने पाण्डु को राजसिंहासन पर आरूढ़ किया।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
भीष्म को ज्ञात हुआ कि गान्धारराज सुबल की पुत्री गान्धारी अत्यन्त सुन्दर लक्षणों तथा गुणों वाली है, साथ ही उसने भगवान शंकर की आराधना करके सौ पुत्रों का वरदान भी प्राप्त कर लिया है। अतः गान्धारी को धृतराष्ट्र के लिए उपयुक्त पत्नी मानकर भीष्म ने गान्धारराज के पास विवाह का सन्देश भेजा। गान्धारराज सुबल ने कुल, प्रसिद्धि तथा सदाचार का विचार करते हुए धृतराष्ट्र की जन्मांधता को अनदेखा कर उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया। गान्धारी को यह ज्ञात होने पर कि उसका भावी पति दृष्टिहीन है, उसने अपनी आँखो पर पट्टी बांध दी और सव्यं भी दृष्टिहीन बन गई। विवाह होने के पश्चात् गान्धारी के भाई शकुनि ने गान्धारी को उसके पति धृतराष्ट्र के पास पहुँचा दिया।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक अत्यन्त सुन्दरी कन्या थी जिसे उन्होंने अपनी बुआ के सन्ताहीन पुत्र कुन्तिभोज को गोद दे दिया था। पृथा अथवा कुन्ती के विवाह योग्य होने पर कुन्तिभोज ने उसका स्वयंवर रचाया जिसमें कुन्ती ने वीरवर पाण्डु को वरमाला पहना दी। इस प्रकार से पाण्डु और कुन्ती का विवाह हो गया। भीष्म ने मद्रराज शल्व की बहन माद्री के अत्यन्त गुणी तथा सुन्दरी होने के विषय में सुन रखा था, अतः उन्होंने मद्रराज शल्व की सहमति से उनकी बहन माद्री से पाण्डु का द्वितीय विवाह कर दिया।राजा देवक के यहाँ एक अनुपम सुन्दरी दासीपुत्री थी जिसके साथ भीष्म ने विदुर का विवाह कर दिया।</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-49819529227957649772012-11-16T17:43:00.004+05:302012-11-16T17:43:57.834+05:30धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर का जन्म<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
शान्तनु के सत्यवती से विवाह के पश्चात् सत्यवती के दो पुत्र हुए – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद और विचित्रवीर्य की बाल्यावस्था में ही शान्तनु का स्वर्गवास हो गया, इसलिए उनका पालन पोषण भीष्म ने ही किया। चित्रांगद के बड़े युवावस्था प्राप्त करने पर भीष्म ने उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया किन्तु कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सिंहासन सौंपा। विचित्रवीर्य को राज्य सौंपने के पश्चात् भीष्म को उसके विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर का आयोजन हुआ। भीष्म ने स्वयंवर में जाकर अकेले ही वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण कर हस्तिनापुर ले आये। अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को अर्पित कर चुकी है। इस बात को सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, “हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।” किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, “हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।” परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग-विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, “पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।” माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, “माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।”</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, “हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।” वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, “माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।” एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, “माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।” सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, “माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।” इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, “माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।” इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-25414055101413545132012-11-16T17:42:00.002+05:302012-11-16T17:42:32.946+05:30भीष्म प्रतिज्ञा और शान्तनु को सत्यवती की प्राप्ति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर विचरण कर रहे थे तो उन्हें नदी में नाव खेते हुए एक सुन्दरी कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग-अंग से सुगन्ध निकल कर वातावरण में चारों ओर व्याप्त हो रही थी। महाराज शान्तनु ने उस कन्या से पूछा, “कल्याणी! तुम किसकी कन्या हो? कृपा करके अपना परिचय दो।”</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
कन्या ने उत्तर दिया, “महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद-कन्या हूँ।”</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
महाराज उसके सौन्दर्य, माधुर्य तथा सौगन्ध्य पर मोहित हो तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। उनके इस प्रस्ताव पर निषाद ने कहा, “राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।” निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, “हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।” उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, “हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।” इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, “वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जैसी कि न आज तक किसी ने किया है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।”</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-22167069582376558752012-11-16T17:41:00.001+05:302012-11-16T17:41:06.020+05:30शान्तनु का गंगा से विवाह और देवव्रत(भीष्म) का जन्म<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक राजा हुए। वीरतापूर्वक तथा सत्यनिष्ठा के साथ राज्य करते हुए उन्होंने अनेक अश्वमेध और राजसूय यज्ञों का आयोजन करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक बार देवतागण और राजर्षिगण, जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित हुए। उस समय वहाँ पर पुण्य सलिला गंगा जी का भी आगमन हुआ। वायु के वेग के कारण गंगा जी का श्वेत परिधान उनके शरीर से कुछ सरक गया। यह देखकर समस्त देवतागण और राजर्षियों ने अपनी आँखें झुका ली किन्तु राजर्षि महाभिष गंगा को निःशंक दृष्टि से देखते रह गए।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
महाभिष के इस कृत्य से अप्रसन्न ब्रह्मा जी ने कहा, “राजर्षि महाभिष, तुम्हारे इस कृत्य के फलस्वरूप तुम्हें मृत्युलोक जाना होता जहाँ गंगा तुम्हारा अप्रिय करेंगी और जब तुम उस पर क्रोध करोगे तो तुम्हारी इस शाप से मुक्ति हो जाएगी।”</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
महाभिष ने ब्रह्मा जी के शाप को शिरोधार्य करते हुए मृत्युलोक में पुरुवंशी राजा प्रतीप का पुत्र बनने का निश्चय कर लिया।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
गंगा जी जब ब्रह्मा जी से भेंट के पश्चात् लौट रही थीं तो मार्ग में वसुओं से उनकी भेंट हुई जो कि ऋषि वसिष्ठ के शाप से श्रीहीन हो रहे थे, वसिष्ठ ऋषि ने उन्हें मृत्युलोक जाने का शाप दिया था। गंगा जी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण करके उनके जन्म होते ही उन्हें मुक्ति देना स्वीकार कर लिया जिसके बदले में उन आठों वसुओं ने अपने-अपने अष्टमांश से मर्त्यलोक में एक पुत्र छोड़ देने की प्रतिज्ञा की।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
उधर मृत्युलोक में राजा प्रतीप अपनी पत्नी के साथ गंगा-द्वार पर तपस्या कर रहे थे तो उन्होंने गंगा से अपने भावी पुत्र की पत्नी बनने का वचन ले लिया। पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से घोर तप करने के फलस्वरूप वृद्धावस्था में राजा प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई, वास्तव में महाभिष ने ही प्रतीक के पुत्र के रूप में जन्म लिया था।</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
पुत्र शान्तनु के युवावस्था प्राप्त हो जाने पर राजा प्रतीक अपना राज-पाट शान्तनु को सौंप कर तपस्या करने के लिए वन में चले गए। एक बार शान्तनु आखेट खेलते हुए जब गंगातट पर पहुँचे तो वहाँ पर उन्हें एक अनिंद्य सुन्दरी दृष्टिगत हुई जो कि रूप-सौन्दर्य में साक्षात् लक्ष्मी-सी प्रतीत हो रही थी। उस सुन्दरी पर, जो कि स्वयं गंगा जी ही थीं, मोहित होकर शान्तनु ने उसके समक्ष अपने साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा। उनके प्रस्ताव को सुनकर गंगा बोलीं, “राजन्! मुझे आपके साथ विवाह करना स्वीकार है किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।” शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र, जो कि शापग्रस्त वसु थे, हुए जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया। अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु को अपनी पत्नी पर अत्यन्त क्रोध आया और वे बोले, “गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।”</div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 20px; text-align: justify;">
यह सुन कर गंगा ने कहा, “राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।” इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्ध्यान हो गईं। तत्पश्चात् महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, “गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।” गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, “राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।” महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया।</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-61351974378297628352012-11-14T21:56:00.002+05:302012-11-14T21:56:39.559+05:30त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><b><u>त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा</u></b></span></div>
<br />
त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग के संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार गौतम ऋषि ने यहां पर तप किया था. स्वयं पर लगे गौहत्या के पाप से मुक्त होने के लिए गौतम ऋषि ने यहां कठोर तपस्या की थी. और भगवान शिव से गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए वर मांगा था. गंगा नदी के स्थान पर यहां दक्षिण दिशा की गंगा कही जाने वाली नदी गोदावरी का यहां उसी समय उद्गम हुआ था. <br />
<br />
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-72264398737855283372012-11-14T21:54:00.003+05:302012-11-14T21:54:52.098+05:30नागेश्वर ज्योतिर्लिग कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><b><u>नागेश्वर ज्योतिर्लिग कथा </u></b></span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नागेश्वर ज्योतिर्लिग के संम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार एक धर्म कर्म में विश्वास करने वाला व्यापारी था. भगवान शिव में उसकी अनन्य भक्ति थी. व्यापारिक कार्यो में व्यस्त रहने के बाद भी वह जो समय बचता उसे आराधना, पूजन और ध्यान में लगाता था. उसकी इस भक्ति से एक दारुक नाम का राक्षस नाराज हो गया. राक्षस प्रवृ्ति का होने के कारण उसे भगवान शिव जरा भी अच्छे नहीं लगते थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह राक्षस सदा ही ऎसे अवसर की तलाश में रहता था, कि वह किस तरह व्यापारी की भक्ति में बाधा पहुंचा सकें. एक बार वह व्यापारी नौका से कहीं व्यापारिक कार्य से जा रहा था. उस राक्षस ने यह देख लिया, और उसने अवसर पाकर नौका पर आक्रमण कर दिया. और नौका के यात्रियों को राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया. कैद में भी व्यापारी नित्यक्रम से भगवान शिव की पूजा में लगा रहता था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बंदी गृ्ह में भी व्यापारी के शिव पूजन का समाचार जब उस राक्षस तक पहुंचा तो उसे बहुत बुरा लगा. वह क्रोध भाव में व्यापारी के पास कारागार में पहुंचा. व्यापारी उस समय पूजा और ध्यान में मग्न था. राक्षस ने उसपर उसी मुद्रा में क्रोध करना प्रारम्भ कर दिया. राक्षस के क्रोध का कोई प्रभाव जब व्यापारी पर नहीं हुआ तो राक्षस ने अपने अनुचरों से कहा कि वे व्यापारी को मार डालें. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह आदेश भी व्यापारी को विचलित न कर सकें. इस पर भी व्यापारी अपनी और अपने साथियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा. उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसी कारागार में एक ज्योतिर्लिंग रुप में प्रकट हुए. और व्यापारी को पाशुपत- अस्त्र स्वयं की रक्षा करने के लिए दिया. इस अस्त्र से राक्षस दारूक तथा उसके अनुचरो का वध कर दिया. उसी समय से भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-72190527824166506442012-11-14T21:43:00.002+05:302012-11-14T21:43:45.714+05:30सोमनाथ ज्योतिर्लिंग कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><u><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;">सोमनाथ ज्योतिर्लिंग कथा</span></u></b></div>
<div style="text-align: justify;">
ज्योतिर्लिंग के प्राद्रुभाव की एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार राजा दक्ष ने अपनी सताईस कन्याओं का विवाह चन्द देव से किया था. सत्ताईस कन्याओं का पति बन कर देव बेहद खुश थे. सभी कन्याएं भी इस विवाह से प्रसन्न थी. इन सभी कन्याओं में चन्द्र देव सबसे अधिक रोहिंणी नामक कन्या पर मोहित थे़. जब यह बात दक्ष को मालूम हुई तो उन्होनें चन्द्र देव को समझाया. लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. उनके समझाने का प्रभाव यह हुआ कि उनकी आसक्ति रोहिणी के प्रति और अधिक हो गई. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह जानने के बाद राजा दक्ष ने देव चन्द्र को शाप दे दिया कि, जाओं आज से तुम क्षयरोग के मरीज हो जाओ. श्रापवश देव चन्द्र् क्षय रोग से पीडित हो गए. उनके सम्मान और प्रभाव में भी कमी हो गई. इस शाप से मुक्त होने के लिए वे भगवान ब्रह्मा की शरण में गए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस शाप से मुक्ति का ब्रह्मा देव ने यह उपाय बताया कि जिस जगह पर आप सोमनाथ मंदिर है, उस स्थान पर आकर चन्द देव को भगवान शिव का तप करने के लिए कहा. भगवान ब्रह्मा जी के कहे अनुसार भगवान शिव की उपासना करने के बाद चन्द्र देव श्राप से मुक्त हो गए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसी समय से यह मान्यता है, कि भगवान चन्द इस स्थान पर शिव तपस्या करने के लिए आये थे. तपस्या पूरी होने के बाद भगवान शिव ने चन्द्र देव से वर मांगने के लिए कहा. इस पर चन्द्र देव ने वर मांगा कि हे भगवान आप मुझे इस श्राप से मुक्त कर दीजिए. और मेरे सारे अपराध क्षमा कर दीजिए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस श्राप को पूरी से समाप्त करना भगवान शिव के लिए भी सम्भव नहीं था. मध्य का मार्ग निकाला गया, कि एक माह में जो पक्ष होते है. एक शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष एक पक्ष में उनका यह श्राप नहीं रहेगा. परन्तु इस पक्ष में इस श्राप से ग्रस्त रहेगें. शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष में वे एक पक्ष में बढते है, और दूसरे में वो घटते जाते है. चन्द्र देव ने भगवान शिव की यह कृ्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें धन्यवाद किया. ओर उनकी स्तुति की. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसी समय से इस स्थान पर भगवान शिव की इस स्थान पर उपासना करना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ. तथा भगवान शिव सोमनाथ मंदिर में आकर पूरे विश्व में विख्यात हो गए. देवता भी इस स्थान को नमन करते है. इस स्थान पर चन्द्र देव भी भगवान शिव के साथ स्थित है. </div>
<br />
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-52771006189662755162012-11-14T21:41:00.001+05:302012-11-14T21:41:37.730+05:30श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><u>श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग स्थापना कथा </u></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कथा के अनुसार भगवान शंकर के दोनों पुत्रों में आपस में इस बात पर विवाद उत्पन्न हो गया कि पहले किसका विवाह होगा. जब श्री गणेश और श्री कार्तिकेय जब विवाद में किसी हल पर नहीं पहुंच पायें तो दोनों अपना- अपना मत लेकर भगवान शंकर और माता पार्वती के पास गए. अपने दोनों पुत्रों को इस प्रकार लडता देख, पहले माता-पिता ने दोनों को समझाने की कोशिश की. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
परन्तु जब वे किसी भी प्रकार से गणेश और कार्तिकेयन को समझाने में सफल नहीं हुए, तो उन्होने दोनों के समान एक शर्त रखी. दोनों से कहा कि आप दोनों में से जो भी पृ्थ्वी का पूरा चक्कर सबसे पहले लगाने में सफल रहेगा. उसी का सबसे पहले विवाह कर दिया जायेगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विवाह की यह शर्त सुनकर दोनों को बहुत प्रसन्नता हुई. कार्तिकेयन का वाहन क्योकि मयूर है, इसलिए वे तो शीघ्र ही अपने वाहन पर सवार होकर इस कार्य को पूरा करने के लिए चल दिए. परन्तु समस्या श्री गणेश के सामने आईं, उनका वाहन मूषक है., और मूषक मन्द गति जीव है. अपने वाहन की गति का विचार आते ही श्री गणेश समझ गये कि वे इस प्रतियोगिता में इस वाहन से नहीं जीत सकते. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
श्री गणेश है. चतुर बुद्धि, तभी तो उन्हें बुद्धि का देव स्थान प्राप्त है, बस उन्होने क्या किया, उन्होनें प्रतियोगिता जीतने का एक मध्य मार्ग निकाला और, शास्त्रों का अनुशरण करते हुए, अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा करनी प्रारम्भ कर दी. शास्त्रों के अनुसार माता-पिता भी पृ्थ्वी के समान होते है. माता-पिता उनकी बुद्धि की चतुरता को समझ गये़. और उन्होने भी श्री गणेश को कामना पूरी होने का आशिर्वाद दे दिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शर्त के अनुसार श्री गणेश का विवाह सिद्धि और रिद्धि दोनों कन्याओं से कर दिया गया. पृ्थ्वी की प्रदक्षिणा कर जब कार्तिकेयन वापस लौटे तो उन्होने देखा कि श्री गणेश का विवाह तो हो चुका है. और वे शर्त हार गये है. श्री गणेश की बुद्धिमानी से कार्तिकेयन नाराज होकर श्री शैल पर्वत पर चले गये़ श्री शैल पर माता पार्वती पुत्र कार्तिकेयन को समझाने के लिए गई. और भगवान शंकर भी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में अपनी पुत्र से आग्रह करने के लिए पहुंच गयें. उसी समय से श्री शैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग की स्थापना हुई, और इस पर्वत पर शिव का पूजन करना पुन्यकारी हो गया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">श्री मल्लिकार्जुन मंदिर निर्माण कथा</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
इस पौराणिक कथा के अलावा भी श्री मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग के संबन्ध में एक किवदंती भी प्रसिद्ध है. किवदंती के अनुसार एक समय की बात है, श्री शैल पर्वत के निकट एक राजा था. जिसकानाम चन्द्रगुप्त था. उस राजा की एक कन्या थी. वह कन्या अपनी किसी मनोकामना की पूर्ति हेतू महलों को छोडकर श्री शैलपर्वत पर स्थित एक आश्रम में रह रही थी. उस कन्या के पास एक सुन्दर गाय थी. प्रतिरात्री जब कन्या सो जाती थी. तो उसकी गाय का दूध को दुह कर ले जाता था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक रात्रि कन्या सोई नहीं और जागकर चोर को पकडने का प्रयास करने लगी. रात्रि हुई चोर आया, कन्या चोर को पकडने के लिए उसके पीछे भागी परन्तु कुछ दूरी पर जाने पर उसेकेवल वहा शिवलिंग ही मिला. कन्या ने उसी समय उस शिवलिंग पर श्री मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण कार्य कराया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रत्येक वर्ष यहां शिवरात्रि के अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है. वही स्थान आज श्री मल्लिका अर्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से भक्तों की इच्छा की पूर्ति होती है. और वह व्यक्ति इस लोक में सभी भोग भोगकर, अन्य लोक में भी श्री विष्णु धाम में जाता है.</div>
<br />
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-24953599118120923352012-11-14T21:36:00.001+05:302012-11-14T21:36:22.756+05:30महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापना कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><u><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;">महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापना कथा </span></u></b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना से संबन्धित के प्राचीन कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार एक बार अवंतिका नाम के राज्य में राजा वृ्षभसेन नाम के राजा राज्य करते थे. राजा वृ्षभसेन भगवान शिव के अन्यय भक्त थे. अपनी दैनिक दिनचर्या का अधिकतर भाग वे भगवान शिव की भक्ति में लगाते थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
एक बार पडौसी राजा ने उनके राज्य पर हमला कर दिया. राजा वृ्षभसेन अपने साहस और पुरुषार्थ से इस युद्ध को जीतने में सफल रहा. इस पर पडौसी राजा ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अन्य किसी मार्ग का उपयोग करना उचित समझा. इसके लिए उसने एक असुर की सहायता ली. उस असुर को अदृश्य होने का वरदान प्राप्त था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
राक्षस ने अपनी अनोखी विद्या का प्रयोग करते हुए अवंतिका राज्य पर अनेक हमले की. इन हमलों से बचने के लिए राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव की शरण लेनी उपयुक्त समझी. अपने भक्त की पुकार सुनकर भगवान शिव वहां प्रकट हुए और उन्होनें स्वयं ही प्रजा की रक्षा की. इस पर राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव से अंवतिका राज्य में ही रहने का आग्रह किया, जिससे भविष्य में अन्य किसी आक्रमण से बचा जा सके. राजा की प्रार्थना सुनकर भगवान वहां ज्योतिर्लिंग के रुप में प्रकट हुए. और उसी समय से उज्जैन में महाकालेश्वर की पूजा की जाती है. </div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-32829973978602126322012-11-14T21:33:00.003+05:302012-11-14T21:33:47.685+05:30ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><u>ओंकारेश्वर ज्योतिलिंग स्थापना कथा </u></span></b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
एक बार विन्ध्यपर्वत ने भगवान शिव की कई माहों तक कठिन तपस्या की उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये. और विन्ध्य पर्वत से अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए कहा. इस अवसर पर अनेक ऋषि और देव भी उपस्थित थे़. विन्ध्यपर्वत की इच्छा के अनुसार भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग के दो भाग किए. एक का नाम ओंकारेश्वर रखा तथा दूसरा ममलेश्वर रखा. ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग के दो रुपों की पूजा की जाती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">ओंकारेश्वार ज्योतिर्लिंग से संबन्धित अन्य कथा </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान के महान भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था. उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया. </div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-64672659976273458352012-11-14T21:27:00.003+05:302012-11-14T21:27:34.554+05:30वैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><u>वैद्यनाथ धाम की पौराणिक कथा </u></span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पौराणिक कथाओं के अनुसार यह ज्योर्तिलिंग लंकापति रावण द्वारा यहां लया गया था. इसकी एक बड़ी ही रोचक कथा है. रावण भगवान शंकर का परम भक्त था. शिव पुरण के अनुसार एक बार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण हिमालय पर्वत पर जाकर शिव लिंग की स्थापना करके कठोर तपस्या करने लगा. कई वर्षों तक तप करने के बाद भी भगवान शंकर प्रसन्न नहीं हुए तब रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए अपने सिर की आहुति देने का निश्चय किया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विधिवत पूजा करते हुए दशानन रावण एक-एक करके अपने नौ सिरों को काटकर शिव लिंग पर चढ़ाता गया जब दसवां सिर काटने वाला था तब भगवान शिव वहां प्रकट हुए और रावण को वरदान मांगने के लिए कहा. रावण को जब इच्छित वरदान मिल गया तब उसने भगवान शिव से अनुरोध किया कि वह उन्हें अपने साथ लंका ले जाना चाहता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शिव ने रावण से कहा कि वह उसके साथ नहीं जा सकते हैं. वह चाहे तो यह शिवलिंग ले जा सकता है. भगवान शिव ने रावण को वह शिवलिंग ले जाने दिया जिसकी पूजा करते हुए उसने नौ सिरों की भेंट चढ़ाई थी. शिवलिंग को ले जाते समय शिव ने रावण से कहा कि इस ज्योर्तिलिंग को रास्ते में कहीं भी भूमि पर मत रखना अन्यथा यह वहीं पर स्थापित हो जाएगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान विष्णु नहीं चाहते थे कि यह ज्योर्तिलिंग लंका पहुंचे अत: उन्होंने गंगा से रावण के पेट में समाने का अनुरोध किया. रावण के पेट में जैसे ही गंगा पहुंची रावण के अंदर मूत्र करने की इच्छा प्रबल हो उठी. वह सोचने लगा कि शिवलिंग को किसी को सौंपकर लघुशंका करले तभी विष्णु भगवान एक ग्वाले के भेष में वहां प्रकट हुए. रावण ने उस ग्वाले बालक को देखकर उसे शिवलिंग सौंप दिया और ज़मीन पर न रखने की हिदायत दी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रावण जब मूत्र करने लगा तब गंगा के प्रभाव से उसकी मूत्र की इच्छा समाप्त नहीं हो रही थी ऐसे में रावण को काफी समय लग गया और वह बालक शिव लिंग को भूमि पर रखकर विलुप्त हो गया. रावण जब लौटकर आया तब लाख प्रयास करने के बावजूद शिवलिंग वहां से टस से मस नहीं हुआ अंत में रावण को खाली हाथ लंका लौटना जाना पड़ा. बाद में सभी देवी-देवताओं ने आकर इस ज्योर्तिलिंग की पूजा की और विधिवत रूप से स्थापित किया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-16622728086184704812012-11-14T21:24:00.006+05:302012-11-14T21:24:54.307+05:30भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><u>भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कथा </u></span></b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का नाम भीमा शंकर किस कारण से पडा इस पर एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा महाभारत काल की है. महाभारत का युद्ध पांडवों और कौरवों के मध्य हुआ था. इस युद्ध ने भारत मे बडे महान वीरों की क्षति हुई थी. दोनों ही पक्षों से अनेक महावीरों और सैनिकों को युद्ध में अपनी जान देनी पडी थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
इस युद्ध में शामिल होने वाले दोनों पक्षों को गुरु द्रोणाचार्य से प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था. कौरवों और पांडवों ने जिस स्थान पर दोनों को प्रशिक्षण देने का कार्य किया था. वह स्धान है. आज उज्जनक के नाम से जाना जाता है. यहीं पर आज भगवान महादेव का भीमशंकर विशाल ज्योतिर्लिंग है. कुछ लोग इस मंदिर को भीमाशंकर ज्योतिर्लिग भी कहते है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><u><span style="color: #0b5394; font-size: large;">भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कथा शिवपुराण अनुसार </span></u></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का वर्णन शिवपुराण में मिलता है. शिवपुराण में कहा गया है, कि पुराने समय में भीम नाम का एक राक्षस था. वह राक्षस कुंभकर्ण का पुत्र था. परन्तु उसका जन्म ठिक उसके पिता की मृ्त्यु के बाद हुआ था. अपनी पिता की मृ्त्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना की उसे जानकारी नहीं थी. समय बीतने के साथ जब उसे अपनी माता से इस घटना की जानकारी हुई तो वह श्री भगवान राम का वध करने के लिए आतुर हो गया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की. उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया. वरदान पाने के बाद राक्षस निरंकुश हो गया. उससे मनुष्यों के साथ साथ देवी देवताओ भी भयभीत रहने लगे. </div>
<div style="text-align: justify;">
धीरे-धीरे सभी जगह उसके आंतक की चर्चा होने लगी. युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारम्भ कर दिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जहां वह जाता मृ्त्यु का तांडव होने लगता. उसने सभी और पूजा पाठ बन्द करवा दिए. अत्यन्त परेशान होने के बाद सभी देव भगवान शिव की शरण में गए.भगवान शिव ने सभी को आश्वासन दिलाया की वे इस का उपाय निकालेगें. भगवान शिव ने राक्षस को नष्ट कर दिया. भगवान शिव से सभी देवों ने आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर शिवलिंग रुप में विराजित हो़. उनकी इस प्रार्थना को भगवान शिव ने स्वीकार किया. और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रुप में आज भी यहां विराजित है. </div>
<br />
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-25247690048987870762012-11-14T21:14:00.004+05:302012-11-14T21:14:48.065+05:30रामेश्वरं ज्योतिर्लिंग की कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #0b5394; font-size: x-large;"><b><u>रामेश्वरं ज्योतिर्लिंग की कथा </u></b></span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के विषय में पौराणिक कथा है. कि जब भगवान श्री राम माता सीता को रावण की कैद से छुडाकर अयोध्या जा रहे थे़ उस समय उन्होने मार्ग में गन्धमदान पर्वत पर रुक कर विश्राम किया था. विश्राम करने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि यहां पर ऋषि पुलस्त्य कुल का नाश करने का पाप लगा हुआ है. इस श्राप से बचने के लिए उन्हें इस स्थान पर भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापित कर पूजन करना चाहिए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह जानने के बाद भगवान श्रीराम ने हनुमान से अनुरोध किया कि वे कैलाश पर्वत पर जाकर शिवलिंग लेकर आयें. भगवान राम के आदेश पाकर हनुमान कैलाश पर्वत पर गए, परन्तु उन्हें वहां भगवान शिव के दर्शन नहीं हो पाए. इस पर उन्होने भगवान शिव का ध्यानपूर्वक जाप किया. जिसके बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हे दर्शन दिए. और हनुमान जी का उद्देश्य पूरा किया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इधर हनुमान जी को तप करने और भगवान शिव को प्रसन्न करने के कारण देरी हो गई. और उधर भगवान राम और देवी सीता शिवलिंग की स्थापना का शुभ मुहूर्त लिए प्रतिक्षा करते रहें. शुभ मुहूर्त निकल जाने के डर से देवी जानकीने विधिपूर्वक बालू का ही लिंग बनाकर उसकी स्थापना कर दी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शिवलिंग की स्थापना होने के कुछ पलों के बाद हनुमान जी शंकर जी से लिंग लेकर पहुंचे तो उन्हें दुख और आश्चर्य दोनों हुआ. हनुमान जी जिद करने लगे की उनके द्वारा लाए गये शिवलिंग को ही स्थापित किया जाएं. इसपर भगवान राम ने कहा की तुम पहले से स्थापित बालू का शिवलिंग पहले हटा दो, इसके बाद तुम्हारे द्वारा लाये गये शिवलिंग को स्थापित कर दिया जायेगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हनुमान जी ने अपने पूरे सामर्थ्य से शिवलिंग को हटाने का प्रयास किया, परन्तु वे असफल रहें. बालू का शिवलिंग अपने स्थान से हिलने के स्थान पर, हनुमान जी ही लहूलुहान हो गए़. हनुमान जी की यह स्थिति देख कर माता सीता रोने लगी. और हनुमान जी को भगवान राम ने समझाया की शिवलिंग को उसके स्थान से हटाने का जो पाप तुमने किया उसी के कारण उन्हें यह शारीरिक कष्ट झेलना पडा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपनी गलती के लिए हनुमान जी ने भगवान राम से क्षमा मांगी और जिस शिवलिंग को हनुमान जी कैलाश पर्वत से लेकर आये थे. उसे भी समीप ही स्थापित कर दिया गया. इस लिंग का नाम भगवान राम ने हनुमदीश्वर रखा. इन दोनो शिवलिंगों की प्रशंसा भगवान श्री राम ने स्वयं अनेक शास्त्रों के माध्यम से की है. </div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-68137453605406781532012-11-14T21:07:00.001+05:302012-11-14T21:07:11.946+05:30केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><u><span style="color: #0b5394; font-size: x-large;">केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा</span></u></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
केदारनाथ महादेव के विषय में कई कथाएं हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक बार केदार क्षेत्र के विषय में जब पार्वती जी ने शिव से पूछा तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केदार क्षेत्र उन्हें अत्यंत प्रिय है. वे यहां सदा अपने गणों के साथ निवास करते हैं. इस क्षेत्र में वे तब से रहते हैं जब उन्होंने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा का रूप धारण किया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्कन्द पुराण में इस स्थान की महिमा का एक वर्णन यह भी मिलता है कि एक बहेलिया था जिस हिरण का मांस खाना अत्यंत प्रिय था. एक बार यह शिकार की तलाश में केदार क्षेत्र में आया. पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे शिकार नहीं मिला. संध्या के समय नारद मुनि इस क्षेत्र में आये तो दूर से बहेलिया उन्हें हिरण समझकर उन पर वाण चलाने के लिए तैयार हुआ. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जब तक वह वाण चलाता सूर्य पूरी तरह डूब गया. अंधेरा होने पर उसने देखा कि एक सर्प मेंढ़क का निगल रहा है. मृत होने के बाद मेढ़क शिव रूप में परिवर्तित हो गया. इसी प्रकार बहेलिया ने देखा कि एक हिरण को सिंह मार रहा है. मृत हिरण शिव गणों के साथ शिवलोक जा रहा है. इस अद्भुत दृश्य को देखकर बहेलिया हैरान था. इसी समय नारद मुनि ब्राह्मण वेष में बहेलिया के समक्ष उपस्थित हुए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बहेलिया ने नारद मुनि से इन अद्भुत दृश्यों के विषय में पूछा. नारद मुनि ने उसे समझाया कि यह अत्यंत पवित्र क्षेत्र है. इस स्थान पर मृत होने पर पशु-पक्षियों को भी मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद बहेलिया को अपने पाप कर्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने पशु-पक्षियों की हत्या की है. बहेलिया ने नारद मुनि से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा. नारद मुनि से शिव का ज्ञान प्राप्त करके बहेलिया केदार क्षेत्र में रहकर शिव उपासना में लीन हो गया. मृत्यु पश्चात उसे शिव लोक में स्थान प्राप्त हुआ. </div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा के विषय में शिव पुराण में वर्णित है कि नर और नारयण नाम के दो भाईयों ने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उनकी पूजा एवं ध्यान में लगे रहते. इन दोनों भाईयों की भक्तिपूर्ण तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव इनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान शिव ने इनसे वरदान मांगने के लिए कहा तो जन कल्याण कि भावना से इन्होंने शिव से वरदान मांगा कि वह इस क्षेत्र में जनकल्याण हेतु सदा वर्तमान रहें. इनकी प्रार्थना पर भगवान शंकर ज्योर्तिलिंग के रूप में केदार क्षेत्र में प्रकट हुए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">केदारनाथ से जुड़ी पाण्डवों की कथा </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शिव पुराण में लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डवों को इस बात का प्रायश्चित हो रहा था कि उनके हाथों उनके अपने भाई-बंधुओं की हत्या हुई है. वे इस पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसका समाधान जब इन्होंने वेद व्यास जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि बंधुओं की हत्या का पाप तभी मिट सकता है जब शिव इस पाप से मुक्ति प्रदान करेंगे. शिव पाण्डवों से अप्रसन्न थे अत: पाण्डव जब विश्वानाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचे तब वे वहां शंकर प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुए. शिव को ढ़ूढते हुए तब पांचों पाण्डव केदारनाथ पहुंच गये. </div>
<div style="text-align: justify;">
पाण्डवों को आया देखकर शिव ने भैंस का रूप धारण कर लिया और भैस के झुण्ड में शामिल हो गये . शिव की पहचान करने के लिए भीम एक गुफा के मुख के पास पैर फैलाकर खड़ा हो गया. सभी भैस उनके पैर के बीच से होकर निकलने लगे लेकिन भैस बने शिव ने पैर के बीच से जाना स्वीकार नहीं किया इससे पाण्डवों ने शिव को पहचान लिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब भैंस बने भगवान शंकर को भीम ने पीठ की तरह से पकड़ लिया. भगवान शंकर पाण्डवों की भक्ति एवं दृढ़ निश्चय को देखकर प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया. इस स्थान पर आज भी द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डवों की पूजा होती है. यहां शिव की पूजा भैस के पृष्ठ भाग के रूप में तभी से चली आ रही है. </div>
<br />
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-64540816546456206152012-11-14T21:01:00.002+05:302012-11-14T21:01:36.215+05:30घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पौराणिक कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b><u>घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पौराणिक कथा </u></b></span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
भारत के दक्षिण प्रदेश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण और उसकी पत्नी सुदेश निवास करते थे. दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे. परंतु इनके कोई संतान सन्तान न थी इस कारण यह बहुत दुखी रहते थे जिस कारण उनकी पत्नि उन्हें दूसरी शादी करने का आग्रह करती थी अत: पत्नि के जोर देने सुकर्मा ने अपनी पत्नी की बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
घुश्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई. पुत्र प्राप्ति से घुश्मा का मान बढ़ गया परंतु इस कारण सुदेश को उससे ईष्या होने लगी जब पुत्र बड़ा हो गया तो उसका विवाह कर दिया गया यह सब देखकर सुदेहा के मन मे और अधिक ईर्षा पैदा हो गई. जिसके कारण उसने पुत्र का अनिष्ट करने की ठान ली ओर एक दिन रात्रि में जब सब सो गए तब उसने घुश्मा के पुत्र को चाकू से मारकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिए और उन टुकड़ों को सरोवर में डाल दिया जहाँ पर घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन किया करती थी. शव को तालाब में फेंककर वह आराम से घर में आकर सो गई.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रोज की भाँति जब सभी लोग अपने कार्यों मे व्यस्त हो गए और नित्यकर्म में लग गये तब सुदेहा भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई. परंतु जब बहू नींद से जागी तो बिस्तर को ख़ून में सना पाया तथा मांस के कुछ टुकड़े दिखाई दिए यह भयानक दृश्य देखकर व्याकुल बहू अपनी सास घुश्मा के पास जाकर रोने लगी और पति के बारे मे पूछने लगी और विलाप करने लगी. सुदेहा भी उसके साथ विलाप मे शामिल हो गई ताकी किसी को भी उस पर संदेह न हो बहू के क्रन्दन को सुनकर घुश्मा जरा भी दुखी नहीं हुई और अपने नित्य पूजन व्रत में लगी रही व सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे. दोनों पति-पत्नि भगवान का पूजन भक्ति के साथ बिना किसी विघ्न, चिन्ता के करते रहे. जब पूजा समाप्त हुई तब घुश्मा ने अपने पुत्र की रक्त से भीगी शैय्या को देखा यह विभत्स दृश्य देखकर भी उसे किसी प्रकार का विलाप नहीं हुआ.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसने कहा की जिसने मुझे पुत्र दिया है वही शिव उसकी रक्षा भी करेंगे वह तो स्वयं कालों के भी काल हैं, सत्पुरूषों के आश्रय हैं और वही हमारे संरक्षक हैं. अत: चिन्ता करने से कुछ न होगा इस प्रकार के विचार कर उसने शिव भगवान को याद किया धैर्य धारण कर शोक से मुक्त हो गईं. और प्रतिदिन की तरह शिव मंत्र ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करती रही तथा पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में प्रवाहित किया तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा अपने पुत्र को देखकर घुश्मा प्रसन्नता से भर गई इतने में ही भगवान शिव उसके सामने प्रकट हो गये. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान शिव घुश्मा की भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा भगवाने ने कहा यदि वो चाहे तो वो उसकी बहन को त्रिशूल से मार डालें. परंतु घुश्मा ने श्रद्धा पूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके कहा कि सुदेहा बड़ी बहन है अत: आप उसकी रक्षा करे उसे क्षमा करें. घुश्मा ने निवेदन किया की मैं दुष्कर्म नहीं कर सकती और बुरा करने वाले की भी भलाई करना ही अच्छा माना जाता है. अत: भगवान शिव घुश्मा के भक्तिपूर्ण विचारों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और कहा घुश्मा तुम कोई और वर मांग सकती हो घुश्मा ने कहा हे महादेव मुझे वर देना ही चाहते हैं तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न महेश्वर शिवजी ने उस स्थान पर सदैव वास करने का वरदान दिया तथा तालाब के समीप ज्योतर्लिंग के रूप में वहां पर वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए उस तालाब का नाम भी तब से शिवालय हो गया. </div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-40140438697552920282012-10-30T21:15:00.001+05:302012-11-08T12:16:17.620+05:30 रावण का स्वभाव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;">रावण के पुत्र ने कहा नीति सुनिए पहले दूत भेजिए, और सीताजी को देकर श्रीरामजी से प्रीति कर लीजिए। यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएं, तब तो झगड़ा न बढ़ाइए। नहीं तो युद्धभूमि में उनसे मार-काट कीजिए। रावण उसकी बातें सुनकर गुस्से से लाल हो गया बोला तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुझे अभी से मन में संदेह क्यों हो रहा है। पिता की यह कठोर बात सुनकर वह अपने महल को चला गया </span><span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"> शाम का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चल दिया। लंका की चोटी पर एक बहुत विचित्र महल था। वहां नाच-गाना व अखाड़ा जमता था। रावण उस महल मैं जाकर बैठा। किन्नर उसके गुणों का गान करने लगे। </span></div>
<span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"></span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;">सुंदर अप्सराएं नृत्य कर रही थी। वह इंद्र की तरह ही भोग विलास कर रहा था। इधर रामजी बहुत भीड़ के साथ बड़े पर्वत पर उतरे। उस रमणीय शिखर पर लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों में सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर मृगछाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु रामजी विराजमान हैं। वानरराज सुग्रीव ने अपना सिर रामजी की गोद में रखा हुआ है। </span></span></div>
<span style="background-color: white;"><span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;">
</span></span>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"><br /></span></span></div>
<span style="background-color: white;">
<span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"></span></span>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;">उनकी बांयी और धनुष तथा बांयी और तरकस है। विभीषण बोले लंका की चोटी पर एक महल है। रावण वहां नाच-गाना देख रहा है। सुनिए ताल और मृदंग बज रहे हैं। तब रामजी ने इसे रावण का अभिमान समझा और मुस्कुराकर धनुष चढ़ाया। एक ही बाण से रावण के मुकुट और मंदोदरी के कर्ण फूल गिरा दिए। लेकिन इसका भेद किसी ने न जाना।</span></span></div>
<span style="background-color: white;"><span style="color: #444444; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;">
</span></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="background-color: white; color: #444444;">
<span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;"></span></span>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #444444;"><span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;">ऐसा चमत्कार करके श्रीरामजी का बाण आकर तरकस में वापस आ घुसा। रंग में भंग देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई। न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। सभी अपने-अपने मन में सोच रहे हैं कि यह तो बहुत बड़ा अपशकुन हो गया। पूरी सभा को डरा हुआ देखकर रावण ने हंसकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा? अपने-अपने घर जाकर सो जाओ (डरने की कोई बात नहीं है)। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के दिल में डर बैठ गया। मंदोदरी ने रावण को बहुत समझाया। पत्नी के वचन सुनकर रावण खूब हंसा और बोला - ओह अज्ञान का महिमा बहुत बलवान है।</span></span></div>
<span style="background-color: white; color: #444444;"><span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;">
</span></span>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #444444;"><span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;"><br /></span></span></div>
<span style="background-color: white; color: #444444;">
<span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;"></span></span>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #444444;"><span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;">स्त्री के स्वभाव के बारे में सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं। साहस, झूठ, चंचलता, माया, डर, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र विराट रूप गाया और मुझे उससे डराने की कोशिश की। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ आया कि तू इस प्रकार मेरी ही प्रभुता का बखान कर रही है। यह सुनने के बाद मंदोदरी ने मन ही मन सोचा कि उसके पति की काल के वश मति भ्रष्ट हो गई है।</span></span></div>
<span style="background-color: white; color: #444444;"><span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;">
</span></span>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-73560128086684632772012-10-30T21:13:00.000+05:302012-10-30T21:13:14.221+05:30गजानन हैं श्रीकृष्ण के अवतार!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: 13px;"><span style="font-family: Century Gothic;"><span style="font-size: medium;"><span style="background-color: white;">हिन्दू धर्मशास्त्रों में श्रीगणेश को भगवान श्रीकृष्ण का ही अवतार बताया गया है। भगवान गणेश के चरित्र से जुड़े इस पहलू को लेकर कई धर्म में आस्थावान लोगों के मन में जिज्ञासा होती है कि आखिर कब और कैस भगवान श्रीकृष्ण महादेव के पुत्र गणेश के रूप में अवतरित हुए? यह रोचक पौराणिक कथा इस जिज्ञासा को शांत करती है-</span></span></span></b></div>
<b style="background-color: white;"><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Century Gothic;"><span style="font-size: medium;">ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा है कि पुत्र पाने की कामना से व्याकुल मां पार्वती ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने बूढ़े ब्राह्मण के वेश में आकर माता पार्वती को बताया कि वह श्रीगणेश के रूप में उनके पुत्र बनकर आएंगे। </span></span></b></div>
</span><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"><br /></span></div>
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"><div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: medium;">इसके बाद बहुत ही सुन्दर बालक माँ पार्वतीजी के सामने प्रकट हुआ। उस बालक की सुंदरता से मोहित होकर सभी देवता, ऋषि-मुनि और ब्रह्मा-विष्णु भी वहां आए। शिव भक्त शनिदेव से भी यह सुनकर रहा नहीं गया। वह भी सुंदर शिव पुत्र को देखने की चाहत से वहां आए। किंतु शनिदेव को उनकी पत्नी का शाप था कि वह जिस पर नजर डालेंगे उसका सिर कट जाएगा। इसलिए शनिदेव ने वहां आकर भी बालक पर नजर नहीं डाली। तब माता पार्वती शनि देव के ऐसे व्यवहार से अचंभित हुई और उन्होंने शनिदेव से अपने सुंदर पुत्र को देखने को कहा। शनिदेव ने माता से उस शाप की बात बताई। किंतु पुत्र पाने की खुशी में माता पार्वती ने शनिदेव का कहा नहीं माना और एक बार देखने को कहा।</span></b></div>
</span><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"><br /></span></div>
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: medium;"><div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: medium;">इस पर जैसे ही शनिदेव ने गणेश की ओर देखा तो उनका सिर कट गया। यह देखते ही सभी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गए। इस पर भगवान विष्णु जाकर एक हाथी के बच्चे का मस्तक काटकर लाए और उसे श्रीगणेश के मस्तक पर लगा दिया। तब से गणेश गजानन कहलाए।</span></b></div>
</span></b></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-8684164050917466222012-10-30T21:11:00.003+05:302012-10-30T21:11:50.113+05:30 शंकरजी द्वारा अर्जुन को पाशुपत अस्त्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<b style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: 13px;"><span style="font-family: Century Gothic;"><span style="background-color: white; color: #444444; font-size: medium;">भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हे उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। उसके बाद अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करों और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे। </span></span></b></div>
<b><span style="background-color: white; color: #444444;"><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Century Gothic'; font-size: medium;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Century Gothic;"><div style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: 13px; text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Century Gothic;"><span style="font-size: medium;">अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं। यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंचे वहां जाकर देखा तो दो नाग थे। दोनों नाग धनुष और बाण में बदल गए। इसके बाद वे धनुष और बाण लेकर कृष्ण-अर्जुन दोनों शंकर भगवान के पास आ गए और उन्हें अर्पण कर दिए। शंकर भगवान की पसली से एक ब्रह्मचारी उत्पन्न हुआ जिसने मंत्र जप के साथ धनुष को चढ़ाया वह मंत्र अर्जुन ने याद कर लिया और शंकरजी ने प्रसन्न होकर वह शस्त्र अर्जुन को दे दिया। यह सब अर्जुन ने स्वप्र में ही देखा था।</span></span></b></div>
<div style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: 13px; text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Century Gothic;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</span></span></b></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-5608868919742104302012-10-30T19:42:00.002+05:302012-10-30T19:42:11.785+05:30परम भक्त हनुमान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">रामचंद्रजी के राज्याभिषेक के समय सीता माता ने हनुमानजी को मणियों की माला उपहार में दी</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">, </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">तो हनुमानजी माला तोडकर एक</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">-</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">एक मणि को दांतों से तोडने लगे और बडे गौर से उन्हें देखने लगे। इस पर लक्ष्मणजी ने क्रोध में पूछा कि क्या कर रहे हो</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">? </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">हनुमानजी ने सहज भाव से कहा कि मेरे राम सर्वत्र विराजमान हैं</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">, </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">कण</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">-</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">कण में रहते हैं। मैं देख रहा था कि इन मणियों में वे विराजमान हैं या नहीं</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">? </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">इस पर लक्ष्मणजी ने कह दिया</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">, </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">क्या तुम्हारे हृदय में भी राम हैं</span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">? </span></span><span style="font-family: Century Gothic; font-size: 13px;"><span style="font-size: small;">उत्तर में हनुमानजी ने अपना सीना चीरकर दिखा दिया कि सचमुच सीता व राम वहां विराजमान हैं। </span></span><span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; text-align: justify;">।</span></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-76358227584544031342012-10-30T19:12:00.003+05:302012-10-30T19:12:47.807+05:30शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<b style="background-color: #eceff4; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="font-family: Century Gothic;">शिव का </span></b><b style="background-color: #eceff4; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="font-family: Century Gothic;">गृहस्थ-</span></b><b style="background-color: #eceff4; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="font-family: Century Gothic;">जीवन</span></b><b style="background-color: #eceff4; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="font-family: Century Gothic;"> </span></b><b style="background-color: #eceff4; font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="font-family: Century Gothic;">उपदेश</span></b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Century Gothic'; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<b style="background-color: #eceff4;"><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Century Gothic';"><br /></span></div>
<div style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Century Gothic;">एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं।</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
<b>भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है।</b></div>
</span><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
<b>भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उसी के अनुसार जीव भोग करता है। प्राणी भले ही प्रमाद में पड़कर सो जाए, परंतु उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है। इसलिए हमेशा सत्कर्म करते रहना चाहिए।</b> </div>
</span></b></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4286524817069221965.post-45969865155026983922012-10-30T19:11:00.000+05:302012-10-30T19:11:00.619+05:30अश्वत्थामा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;">गुरु द्रौण और उनके पुत्र अश्वत्थामा</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white;"><span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"> द्रौण को अपने पुत्र </span><span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;">अश्वत्थामा </span><span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;">से बहुत प्यार था। शिक्षा में भी अन्य छात्रों से भेदभाव करते थे। जब उन्हें सभी कौरव और पांडव राजकुमारों को चक्रव्यूह की रचना और उसे तोडऩे के तरीके सिखाने थे, उन्होंने शर्त रख दी कि जो राजकुमार नदी से घड़ा भरकर सबसे पहले पहुंचेगा, उसे ही चक्रव्यूह की रचना सिखाई जाएगी। सभी राजकुमारों को बड़े घड़े दिए जाते लेकिन अश्वत्थामा को छोटा घड़ा देते ताकि वो जल्दी से भरकर पहुंच सके। सिर्फ अर्जुन ही ये बात समझ पाया और अर्जुन भी जल्दी ही घड़ा भरकर पहुंच जाते।</span><span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"> </span></span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<span style="background-color: white;"><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;">जब ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की बारी आई तो भी द्रौणाचार्य के पास दो ही लोग पहुंचे। अर्जुन और अश्वत्थामा। अश्वत्थामा ने पूरे मन से इसकी विधि नहीं सीखी। ब्रह्मास्त्र चलाना तो सीख लिया लेकिन लौटाने की विधि नहीं सीखी। उसने सोचा गुरु तो मेरे पिता ही हैं। कभी भी सीख सकता हूं। द्रौणाचार्य ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। जब महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन और अश्वत्थामा ने एक-दूसरे पर ब्रह्मास्त्र चलाया। वेद व्यास के कहने पर अर्जुन ने तो अपना अस्त्र लौटा लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लौटाया क्योंकि उसे इसकी विधि नहीं पता थी। जिसके कारण उसे शाप मिला। उसकी मणि निकाल ली गई और कलयुग के अंत तक उसे धरती पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया।</span><span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<span style="font-family: 'Book Antiqua'; font-size: medium; font-weight: bold;"><div style="text-align: justify;">
अगर द्रौणाचार्य अपने पुत्र मोह पर नियंत्रण रखकर उसे शिक्षा देते, उसके और अन्य राजकुमारों के बीच भेदभाव नहीं करते तो शायद अश्वत्थामा को कभी इस तरह सजा नहीं भुगतनी पड़ती।</div>
</span></span></div>
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